सुशील कुमार मोदी : इन दिनों विपक्ष यह प्रचारित करने में लगा हुआ है कि लोकतंत्र एवं संविधान खतरे में है और असहमति की आवाज को दबाया जा रहा है। ऐसा कहने वालों में कांग्रेस सबसे आगे है। ऐसे में यह याद करना आवश्यक है कि जब 25 जून, 1975 की रात को आपातकाल लागू किया गया तो देश में क्या-क्या हुआ था? इंदिरा गांधी का आपातकाल स्वतंत्र प्रेस के लिए उस वक्त का कोरोना काल साबित हुआ।

उस दौर में प्रमुख राष्ट्रीय अखबारों के कार्यालय दिल्ली के जिस बहादुरशाह जफर मार्ग पर थे, वहां की बिजली काट दी गई, ताकि अगले दिन अखबार प्रकाशित न हो सकें। जो अखबार छप भी गए, उनके बंडल जब्त कर लिए गए। हाकरों से अखबार छीन लिए गए। आदेश था बिजली काट दो, मशीन रोक दो, बंडल छीन लो। 26 जून की दोपहर तक प्रेस सेंसरशिप लागू कर अभिव्यक्ति की आजादी को रौंद दिया गया। अखबारों के दफ्तर में अधिकारी बैठा दिए। बिना सेंसर अधिकारी की अनुमति के अखबारों में राजनीतिक समाचार नहीं छापे जा सकते थे।

जब सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल सरकार के मनोनुकूल मीडिया को नियंत्रित नहीं कर पाए तो उन्हें हटाकर विद्याचरण शुक्ल को नया मंत्री बनाया गया। लगभग 250 पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया। 50 से ज्यादा पत्रकारों, छायाकारों की सरकारी मान्यता रद कर दी गई। प्रेस काउंसिल आफ इंडिया को भंग कर दिया गया। आयकर और बिजली के बकाये की आड़ में अखबारों पर छापे डाले गए। बैंको को कर्ज देने से रोका गया। कुछ अखबारों का प्रबंधन सत्ता समर्थक लोगों के हाथों में सौंपने का प्रयास भी हुआ। कुछ अखबारों ने सेंसरशिप के विरोध में संपादकीय स्थान को खाली छोड़ दिया। उनके संपादकों को गिरफ्तार कर लिया गया। उस वक्त चंद पत्रकारों-अखबारों को छोड़ कर अधिकांश ने सरकार के सामने घुटने टेक दिए।

सेंसरशिप के कारण जेपी सहित अन्य कौन-कौन नेता कब गिरफ्तार हुए, उन्हें किन-किन जेलों में रखा गया, ये समाचार छपने नहीं दिए गए। यहां तक कि संसद एवं न्यायालय की कार्यवाही पर भी सेंसरशिप लागू कर दी गई। संसद में अगर किसी सदस्य ने आपातकाल, प्रधानमंत्री या सेंसरशिप के खिलाफ भाषण दिया, तो वह कहीं नहीं छप सकता था। माकपा नेता नंबूदरीपाद ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र में लिखा था कि आजादी के आंदोलन में अंग्रेजों ने विरोधी नेताओं के नाम और बयान छापने पर रोक नहीं लगाई थी। उनका वह पत्र कभी छप नहीं सका। न्यायालय में सरकार के विरुद्ध दिए गए निर्णयों को छापने की भी मनाही थी।

यह विडंबना थी कि जिन इंदिरा गांधी ने 1975 में प्रेस सेंसरशिप लागू किया, उन्हीं के पति फिरोज गांधी प्रेस की आजादी और विचारों की स्वतंत्रता के लिए लड़ते रहे। आजादी के बाद प्रारंभिक वर्षों में संसदीय कार्यवाही को छापने पर अनेक पाबंदियां थीं और इसका उल्लंघन करने पर पत्रकारों पर मुकदमा चलाया जा सकता था। फिरोज गांधी के प्रयास से यह प्रतिबंध हटा। इंदिरा गांधी ने 1972-73 में भी अखबारों की आजादी पर अकुंश लगाने का परोक्ष प्रयास किया था। उन दिनों न्यूजप्रिंट आयात किया जाता था और सर्कुलेशन के आधार पर उसका कोटा निर्धारित था।

1972-73 में न्यूजप्रिंट पालिसी के अंतर्गत सरकार ने नई पाबंदिया लगा दीं। इनके अनुसार कोई समाचार पत्र समूह दो से ज्यादा अखबार या नया संस्करण नहीं निकाल सकता था, अखबार दस पृष्ठ से ज्यादा के नहीं हो सकते थे। समूह के भीतर कोटा की अदला-बदली नहीं हो सकती थी। इस मामले में इंदिरा सरकार को सुप्रीम कोर्ट में मुंह की खानी पड़ी। सरकार आपातकाल की ज्यादतियों के समाचार विदेशी अखबारों में छपने से नहीं रोक पा रही थी।

इंदिरा गांधी विदेशी पत्रकारों से नाराज थीं। लोग विश्वसनीय समाचार के लिए आकाशवाणी के बजाय बीबीसी पर भरोसा करने लगे थे। भारत में बीबीसी के प्रमुख संवाददाता मार्क टुली को 24 घंटे के भीतर देश छोड़ने के लिए बाध्य किया गया। टाइम, न्यूज वीक, द डेली टेलीग्राफ के संवाददाताओं को भी भारत छोड़ना पड़ा। सरकार पर कटाक्ष करने वाले कार्टून, व्यंग्य, चुटकुले भी सेंसर की मार से बच नहीं पाए। व्यंग्य चित्रों की प्रसिद्ध पत्रिका ‘शंकर्स वीकली’ को प्रकाशन बंद करना पड़ा। वीकली ने अंतिम संपादकीय में लिखा-‘तानाशाही कभी हंसी स्वीकार नहीं करती, क्योंकि तब लोग तानाशाह पर हंसेंगे।

केवल पत्रकारों ही नहीं, फिल्मी हस्तियों पर भी गाज गिरी। जो हस्तियां सरकार के समर्थन में नहीं थीं, उन्हें काली सूची में डाल दिया गया। किशोर कुमार के गानों का आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रसारण रोक दिया गया। गुलजार की फिल्म ‘आंधी’ पर रोक लगा दी गई, क्योंकि सुचित्रा सेन और संजीव कुमार फिल्म में इंदिरा और फिरोज से मिलते-जुलते लगते थे। कांग्रेस सांसद अमृत नाहटा की फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ भी कोप का शिकार बनी। फिल्म के प्रिंट को जला दिया गया।

अखबारों की खबरों पर सेंसर के कारण भूमिगत प्रचार तंत्र तैयार हो गया। गुप्त रूप से निकलने वाली पत्र-पत्रिकाओं, पर्चों का वितरण और सार्वजनिक दीवारों पर चोरी-छिपे नारे आदि लिखना ही जोखिम भरा माध्यम रह गया था। ऐसे पर्चे छापने वाली प्रिंटिंग प्रेस पर ताला लगा दिया जाता। गिरफ्तारी के डर से साइक्लोस्टाइल कर चोरी-छिपे पर्चे, पत्रिकाएं वितरित की जाने लगीं। प्रेस पर ऐसे कठोर अंकुश लगाने का दुष्परिणाम यह हुआ कि इंदिरा गांधी जमीनी हकीकत से दूर हो गईं। जनता के बड़े वर्ग के भीतर ऐसा आक्रोश पनपा कि आपातकाल हटने के बाद जब 1977 में संसदीय चुनाव हुए, तब लगभग पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस का सफाया हो गया। प्रेस की आजादी छीनने की कीमत इंदिरा गांधी को सत्ता गंवा कर चुकानी पड़ी।

(लेखक राज्यसभा सदस्य एवं बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री हैं)