चीन से और सावधान रहने का समय, केवल ताइवान तक सीमित नहीं रहने वाली उसकी बदनीयती
इसमें कोई संदेह नहीं कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी नेतृत्व विशेषरूप से शी के लिए ताइवान से अधिक महत्वपूर्ण कोई और मुद्दा नहीं। उन्हें सबसे ज्यादा वाहवाही चीन के एकीकरण और चीनी राष्ट्र के कायाकल्प की बात पर ही मिलीं।
हर्ष वी. पंत : चीन के सबसे बड़े राजनीतिक आयोजन में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग का संबोधन किसी सम्राट की भांति रहा। विशुद्ध शाही अंदाज में उन्होंने यह संदेश दिया कि अहम मसलों पर पीछे मुड़ने का उनका कोई इरादा नहीं। इनमें शून्य कोविड नीति से लेकर ताइवान, रिश्वतखोरी विरोधी अभियान और ‘चीनी प्रभुत्ववादी धर्म’ जैसे उनके प्रमुख एजेंडे शामिल हैं। इन पर दो-टूक बयान से उनका फैसला स्पष्ट है कि अपने देश को उसकी नियति से साक्षात्कार कराने को लेकर उनकी सोच एकदम स्पष्ट है और वह चीन को उसी दिशा में ले जाना चाहते हैं। उन्हें लगता है वही चीन को नए युग में ले जाएंगे।
थेन आनमन चौक स्थित ‘द ग्रेट हाल आफ द पीपल’ में कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस में 2,000 से अधिक प्रतिनिधियों के समक्ष करीब दो घंटे चला शी का भाषण मुख्य रूप से इन्हीं बिंदुओं पर केंद्रित रहा। चूंकि वह लगातार तीसरा कार्यकाल संभालने जा रहे हैं तो माओ जैसे कद्दावर नेताओं की पांत में शामिल हो गए हैं। इसलिए उसे प्रतिबिंबित करने की कोई खास जरूरत नहीं। अब नजर उनके पांच साल के भावी एजेंडे पर होगी, जिसके केंद्र में ‘चीनी राष्ट्र का भव्य कायाकल्प’ जैसी उनकी महत्वाकांक्षी योजना रहेगी, जिसके जरिये वह अपनी विरासत को मजबूत करेंगे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी नेतृत्व विशेषरूप से शी के लिए ताइवान से अधिक महत्वपूर्ण कोई और मुद्दा नहीं। उन्हें सबसे ज्यादा वाहवाही चीन के एकीकरण और चीनी राष्ट्र के कायाकल्प की बात पर ही मिलीं। उन्होंने कहा कि इतिहास का पहिया इसी दिशा में घूम रहा है और बिना किसी संदेह के राष्ट्र के संपूर्ण एकीकरण को आकार दिया जाएगा। अपने भाषण की शुरुआत में ही वह इस मुद्दे पर आ गए, जो इस मसले की तात्कालिकता और उनकी प्राथमिकता को दर्शाता है।
उन्होंने कहा कि चीन से अलगाव में जुटी अलगाववादी ताकतों की सक्रियता के बावजूद उनकी सरकार ताइवान में अलगाववाद एवं विदेशी हस्तक्षेप से निपटने को लेकर डटी रही। शी ने यही संकेत दिए कि इस मामले में कोई ढील नहीं दी जाएगी और किसी भी प्रकार के विरोध से सख्ती से निपटा जाएगा। ताइवान की आजादी का विरोध और अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता एवं भौगोलिक अखंडता को लेकर उन्होंने कहा कि ‘नए दौर में ताइवान के मुद्दे को सुलझाने के लिए हमें समग्र रणनीति के साथ आगे बढ़ना, उसके साथ विनिमय एवं सहयोग बढ़ाना, ताइवान की आजादी का दृढ़ता से विरोध और बाहरी ताकतों का पुरजोर तरीके से प्रतिरोध करना है और ताइवान-स्ट्रेट में पहलकारी रुख एवं प्रभुत्व पर पकड़ बनाए रखनी है।’
चिनफिंग ने यह भी सुनिश्चित किया कि उनकी बात न केवल उनके समर्थकों, बल्कि ताइपे तक भी पहुंच जाए। उन्होंने शांतिपूर्ण कदमों की जुमलेबाजी के साथ ही सभी आवश्यक कदम उठाने के विकल्प की बात भी दोहराई। ताइवान स्ट्रेट में हालिया तनाव को देखते हुए स्पष्ट है कि चीन की वैश्विक पहचान में ताइवान की भूमिका कितनी केंद्रीय हो गई है। फिर चाहे बात घरेलू नीतियों की हो या फिर विदेश नीति आकांक्षाओं की। ताइवान पर फोकस के साथ शी न केवल आक्रामक ताइवान नीति के लिए घरेलू राजनीतिक समर्थन जुटाने की कोशिश में हैं, बल्कि किसी संभावित संकट की स्थिति में बाहर निकलने की राह भी मुश्किल बना रहे हैं।
वैसे तो शी ने दुनिया को यह बार-बार याद दिलाया है कि चीनी सेना ताइवान को मिलने वाली किसी भी विदेशी मदद की काट करने में सक्षम है, लेकिन यह स्पष्ट होता जा रहा है कि वह अब इस मुद्दे पर बेसब्र हुए जा रहे हैं और अपने इरादे भी जाहिर करना चाहते हैं। पार्टी कांग्रेस से निकला संदेश स्पष्ट है कि ताइवान पर चीनी दबाव बढ़ेगा। ताइवानी लोगों का हौसला तोड़ा जाएगा।
शी के भाषण पर ताइपे ने भी कड़े शब्दों में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, ‘ताइवान का रुख दृढ़ है कि राष्ट्रीय संप्रभुता पर पीछे नहीं हटा जाएगा, लोकतंत्र और स्वतंत्रता से कोई समझौता नहीं होगा और युद्ध तो दोनों ही पक्षों के लिए कोई विकल्प नहीं।’ इसे ‘ताइवानी जनता की सर्वसम्मति’ बताया गया है। ताइवान के प्रधानमंत्री सेंग-चैंग ने कहा कि शी चिनफिंग को हमेशा ताइवान के साथ सख्ती से निपटने के बजाय अपने देश में हो रहे विरोध-प्रदर्शनों पर ध्यान देना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि बीते दिनों बीजिंग में दो बड़े बैनरों के साथ प्रदर्शन किया गया, जिसमें ‘शून्य कोविड नीति’ को समाप्त करने और शी चिनफिंग को सत्ता से हटाने की मांग की गई थी। असल में ताइवान के साथ चीन के रिश्ते सबसे तल्ख दौर में हैं, क्योंकि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को महसूस हो रहा है कि ‘शांतिपूर्ण एकीकरण’ के लिए समय हाथ से निकला जा रहा है। वहीं ताइवान के रवैये में पीढ़ीगत बदलाव आ रहा है और बीजिंग की तल्ख प्रतिक्रिया से चीन-ताइवान में दूरियां और बढ़ रही हैं। शी ने भले ही ‘एक देश-दो शासन’ का दांव चलते हुए कहा हो कि यह हांगकांग और मकाऊ के लिए सबसे बेहतरीन संस्थागत तंत्र सिद्ध हुआ है और इसकी आड़ में ताइवान को ‘देशभक्तों द्वारा प्रशासित व्यापक स्वायत्तता वाले क्षेत्र’ का सब्जबाग दिखाया हो, लेकिन ताइवान में कोई भी अपनी हांगकांग जैसी नियति नहीं चाहता।
चीनी राष्ट्रपति ने जाहिर तो यही किया है कि ताइवान उनकी वैश्विक सक्रियता का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र बना रहेगा, लेकिन यह समय भारत सहित शेष विश्व के लिए आकार ले रहे घटनाक्रम के निहितार्थों का गंभीरता से आकलन करने का है। भारत इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि ‘द ग्रेट हाल आफ द पीपल’ में गलवन में हुए संघर्ष के वीडियो फुटेज दिखाए गए। वास्तव में, ताइवान के प्रति बीजिंग की नीति तो एक बड़ी समस्या का लक्षण मात्र है। यह बीमारी है शी चिनफिंग का साम्राज्यवादी मोह। यथास्थिति में एकतरफा परिवर्तन की उनकी यह इच्छा केवल ताइवान तक ही सीमित नहीं रहेगी। यह उनकी साम्राज्यवादी फंतासी की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति है। भारत, दक्षिण चीन सागर और पूर्वी चीन सागर भी बहुत ज्यादा दूर नहीं। इसी कारण, ताइवान के साथ व्यापक एकजुटता जताना समय की आवश्यकता है।
(लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं)