पूर्वी सीमा को लेकर सतर्क रहे भारत, म्यांमार और बांग्लादेश सीमा पर कायम संकटों के दीर्घकालिक समाधान तलाशने का समय
असल में भारत-म्यांमार सीमा की परिस्थितियां भी पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा के हालात से मेल खाती हैं। वहां भी सीमा के दोनों ओर पश्तून हैं। हथियारबंद उग्रवादी संगठन हैं। हिंसा का बोलबाला ड्रग्स तस्करी अवैध शरणार्थी स्थानीय सरकार की आतंकियों से सहानुभूति और विदेशी खुफिया एजेंसियों की सक्रियता जैसे पहलू प्रभावी हैं। ऐसे में म्यांमार सीमा पर यह स्थिति ज्यादा लंबी खिंची तो भारत की सुरक्षा के लिए चुनौतियां बढ़ाएगी।
दिव्य कुमार सोती। भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा से होने वाली घुसपैठ सदा से उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चुनौती रही है, लेकिन चीन की आक्रामक नीतियों के चलते हमारी उत्तरी और उत्तर-पूर्वी सीमाओं पर भी एक बड़ा खतरा बना हुआ है। यह खतरा समय-समय पर सिर उठाता रहा है। वर्ष 2020 के दौरान गलवन में भारत और चीन के बीच सैन्य झड़पों के बाद अब तिब्बत से लगने वाली वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी भी भारत-पाकिस्तान नियंत्रण रेखा की तरह ही सैन्य दृष्टिकोण से संवेदनशील हो उठी है। पिछले तीन साल से वहां निरंतर युद्धस्तरीय सैन्य तैनाती बनाए रखनी पड़ रही है। ऐसी स्थिति में अब भारत की पूर्वी सीमाओं पर भी संकट के बादल छाते दिख रहे हैं।
भारत की पूर्वी सीमाओं से लगने वाले म्यांमार के इलाकों में आजकल गृह युद्ध जैसे हालात हैं। इससे पूर्वोत्तर भारत में शरणार्थी संकट उत्पन्न हो रहा है। इस कारण सीमा प्रबंधन का काम जटिल हो गया है, जिससे केंद्र और राज्यों के संबंध भी प्रभावित हो रहे हैं। शरणार्थियों की आड़ में अवांछित तत्व भी घुसे चले आ रहे हैं, जो इस संवेदनशील क्षेत्र की सुरक्षा के लिए जोखिम बढ़ा सकते हैं। 2021 में म्यांमार में सैन्य तख्तापलट के बाद से वहां के विभिन्न जनजातीय उग्रवादियों ने एक गठजोड़ बनाकर म्यांमार की सैन्य सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा है। इनमें से अधिकतर भारत की पूर्वी सीमा से लगने वाले म्यांमार के प्रदेशों में सक्रिय हैं।
चूंकि ये गुट तथाकथित रूप से सैन्य शासन के खिलाफ लड़ रहे हैं तो विश्व भर में लोकतंत्र के प्रसार के नाम पर दुकान चलाने वाले पश्चिमी देशों के एनजीओ नेटवर्क का इन उग्रवादियों को पूरा समर्थन मिला हुआ है। इन जनजातियों का कई दशकों से ईसाई मिशनरियों ने भी पूरा जोर लगाकर मतांतरण कराया है। इसलिए अंतरराष्ट्रीय ईसाई मिशनरी लाबी का भी उन्हें साथ मिला हुआ है। वे पश्चिमी देशों के इन गुटों के समर्थन से पैसा और सहानुभूति दोनों जुटा रहे हैं। इसके दम पर वे म्यांमार की सेना के विरुद्ध अत्याधुनिक हथियार और ड्रोन तक का इस्तेमाल कर रहे हैं। ये उग्रवादी भारत की सीमा के निकट म्यांमार के कई सैन्य ठिकानों पर कब्जा करने में सफल हुए हैं। म्यांमार की वायुसेना भी भारतीय सीमा के निकट इन उग्रवादियों पर बमबारी कर रही है।
ये उग्रवादी गुट इतने बेलगाम हो चुके हैं कि भारत-म्यांमार सीमा के कई क्षेत्रों पर कब्जा करना अब इनका घोषित लक्ष्य है, जिसका अर्थ होगा कि एक तरह से हमारे पड़ोसी बदल जाएंगे। यह क्षेत्र उस ‘गोल्डन ट्राइएंगल’ का हिस्सा है जो पूरी दुनिया में ड्रग्स के अवैध उत्पादन एवं व्यापार के लिए कुख्यात है। ये उग्रवादी संगठन पैसा जुटाने के लिए ड्रग्स की अवैध तस्करी में सक्रिय हैं। इनकी मिजोरम और मणिपुर के पहाड़ी हिस्सों में बसे कुकी-चिन समुदायों में गहरी पैठ है। सीमा पार भी इस समुदाय की आबादी फैली हुई है। इससे उपजी राजनीति और हिंसा के चलते ही मणिपुर महीनों से हिंसाग्रस्त है।
मिजोरम में इस समुदाय का बाहुल्य है और वहां की पिछली जोरमथांगा सरकार भी म्यांमार से आने वाले कुकी-चिन उग्रवादियों और अन्य शरणार्थियों को भी केंद्र सरकार के निर्देशों के विरुद्ध जाकर भी शरण देती रही। इन प्रदेशों के अन्य समुदायों का आरोप है कि म्यांमार से आने वाले ये लोग शरणार्थी शिविरों में न रह कर अलग बस्तियां और गांव बसा लेते हैं या भीड़ में गुम हो जाते हैं। इससे इन राज्यों का जनसांख्यिकीय संतुलन बिगड़ रहा है।
असल में भारत-म्यांमार सीमा की परिस्थितियां भी पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा के हालात से मेल खाती हैं। वहां भी सीमा के दोनों ओर पश्तून हैं। हथियारबंद उग्रवादी संगठन हैं। हिंसा का बोलबाला, ड्रग्स तस्करी, अवैध शरणार्थी, स्थानीय सरकार की आतंकियों से सहानुभूति और विदेशी खुफिया एजेंसियों की सक्रियता जैसे पहलू प्रभावी हैं। ऐसे में म्यांमार सीमा पर यह स्थिति ज्यादा लंबी खिंची तो भारत की सुरक्षा के लिए चुनौतियां बढ़ाएगी।
पूर्वी सीमा से सटे दूसरे देश बांग्लादेश में भी हालात कम चुनौतीपूर्ण नहीं हैं। वहां चुनाव निकट हैं और पश्चिमी देश शेख हसीना सरकार को वापस आता नहीं देखना चाहते। शेख हसीना का आरोप है कि अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश उनकी सरकार का तख्तापलट कर विपक्ष को सत्ता में लाना चाहते हैं। बांग्लादेश में विपक्ष की नेता खालिदा जिया हैं, जिन्हें कट्टरपंथी इस्लामिक संगठनों और सेना में चरमपंथी इस्लामिक तत्वों का समर्थन हासिल है।
वैसे बांग्लादेश में चाहे जिस पार्टी की सरकार हो, वहां अल्पसंख्यक हिंदुओं का उत्पीड़न ही होता रहा है। इसके बावजूद तुलनात्मक रूप से शेख हसीना भारत के लिए बेहतर विकल्प रही हैं, क्योंकि उन्होंने जहां तक संभव हो सका, इस्लामिक कट्टरपंथियों और पाकिस्तानपरस्त तत्वों पर लगाम लगाने का प्रयास किया है। उन्होंने 1971 के युद्ध-अपराधियों को फांसी के तख्ते तक भी पहुंचाया है। इसके उलट अगर खालिदा जिया सत्ता में आती हैं तो इस्लामिक चरमपंथियों और पाकिस्तान की बांग्लादेशी सत्ता पर पकड़ मजबूत होगी। अमेरिका शेख हसीना सरकार पर मानवाधिकारों के उल्लंघन और निष्पक्ष चुनावों को रोकने के लिए विपक्षी दलों के दमन के आरोप लगा रहा है।
यह सही है कि शेख हसीना सरकार ने लगभग 10,000 विपक्षी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया है, लेकिन इनमें से अधिकांश वही हैं जो जमात-ए-इस्लामी और बांग्लादेश नेशनल पार्टी के सदस्य हैं। ये लोग 1971 से तमाम नरसंहारों, हत्याकांडों और उपद्रवों में शामिल रहे हैं। इसलिए उनके स्वतंत्र रहते भी निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं है। अगर पिछली बार की तरह खालिदा जिया की पार्टी बीएनपी इस बार भी चुनावों का बहिष्कार करती है तो वह भी गुस्से और कट्टरपंथ को ही हवा देगा। सीधे शब्दों में कहें तो अगले पांच वर्षों में बांग्लादेश को लेकर भी भारत की चुनौतियां बढ़ने वाली हैं। ऐसे में आवश्यक है कि भारत म्यांमार और बांग्लादेश में कायम इन संकटों का दीर्घकालिक समाधान तलाशने का प्रयास करे। अन्यथा पूर्वी मोर्चे पर भी उसके लिए बड़ी समस्याएं उत्पन्न होंगी।
(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)