डा. अभय सिंह यादव: हमारे देश की न्यायपालिका विश्व के श्रेष्ठतम न्यायतंत्रों की श्रेणी में उपस्थिति दर्ज करवाती रही है। स्वतंत्रता के उपरांत इसने समय की चुनौतियों से गुजरते हुए अपनी प्रतिष्ठा एवं गरिमा को सुरक्षित रखा है। संविधान ने इसे प्रजातंत्र के प्रहरी की भूमिका में संविधान की रक्षा का दायित्व सौंपा है। सरकार के शेष दोनों अंगों कार्यपालिका एवं विधायिका के कार्य की समीक्षा का दायित्व भी न्यायपालिका के पास है। पूरी व्यवस्था को सुव्यवस्थित एवं सुचारु बनाने के लिए तीनों ही अंगों को परिसीमित करने वाली लक्ष्मण रेखा भी संविधान में निहित है, ताकि सरकार के सभी अंग अपनी-अपनी सीमा में रहते हुए सामंजस्य एवं संतुलन के साथ अपने कार्यक्षेत्र में आगे बढ़ते रहें।

उच्च पदों पर न्यायिक नियुक्तियों की वर्तमान कोलेजियम प्रणाली पर हाल में छिड़ी बहस ने आम जनमानस का ध्यान न्यायपालिका पर केंद्रित किया है। इसलिए और भी अधिक, क्योंकि कोलेजियम को लेकर विभिन्न नेताओं की ओर से संसद के भीतर और बाहर लगातार वक्तव्य दिए जा रहे हैं। निःसंदेह यह एक गंभीर विषय है। मूल रूप से संविधान में न्यायिक नियुक्तियों की एक सुस्पष्ट व्यवस्था उपलब्ध थी, परंतु कुछ परिस्थितिजन्य घटनाओं ने एक ऐसी स्थिति पर पहुंचा दिया, जहां न्यायपालिका ने अपनी न्यायिक समीक्षा की शक्तियों का प्रयोग करते हुए उच्च न्यायिक नियुक्तियों का अधिकार काफी हद तक अपने पास सीमित कर लिया, जिसे कोलेजियम प्रणाली के रूप में जाना जाता है। अब इस कोलेजियम प्रणाली की कुछ सीमाएं रेखांकित होने लगी हैं। यही कारण है कि इस विषय में प्रबुद्ध वर्ग में चिंतन एवं विवेचन का सिलसिला शुरू हुआ है।

केंद्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद इस प्रणाली का एक पारदर्शी एवं प्रभावी विकल्प संसद के समक्ष लाया गया और न्यायिक नियुक्ति की इस व्यवस्था को देश की सर्वोच्च विधायिका ने सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान संशोधन विधेयक के जरिये बनाए गए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के अमल में आने से पहले ही अपने न्यायिक समीक्षा के अधिकार का प्रयोग करते हुए उसे निरस्त कर दिया। आम जनमानस के मानस पटल पर इस घटनाक्रम ने अनेक प्रश्न छोड़ दिए। सामान्यतः कोई भी व्यक्ति अपने स्वयं के मामले में न्यायाधीश नहीं हो सकता। इसके लिए हमेशा तीसरे पक्ष से निर्णय की अपेक्षा की जाती है।

लगभग पूरी न्यायिक व्यवस्था की एक स्थापित मान्यता है कि यदि किसी मामले से किसी न्यायाधीश का कोई संबंध रहा है तो ऐसे मामलों की सुनवाई से वे स्वयं को अलग कर लेते हैं, किंतु इस मामले में न्यायपालिका ने स्वयं से सीधा संबंध रखने वाले मामले का खुद ही निर्णय कर दिया। यहां यह बात भी स्वाभाविक रूप से आती है कि सर्वोच्च न्यायालय से ऊपर देश में कोई न्यायिक व्यवस्था उपलब्ध ही नहीं है तो इसका निर्णय उसे ही करना था। इसके बाद भी इस विषय पर लीक से हटकर विचार किया जा सकता था, जिसमें इसे मात्र न्यायिक निर्णय मानने की मनोस्थिति से बाहर निकलकर विचार हो सकता था।

संविधान द्वारा देश की न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा का अधिकार देने के बाद भी संविधान की मूल भावना का एक सत्य यह भी है कि प्रजातंत्र का अंतिम सत्य एवं शक्ति प्रजा ही है। देश की संसद इस प्रजा का सीधा प्रतिनिधित्व करने वाली सर्वोच्च सभा है। यही कारण है कि स्वयं संविधान ने इसमें संशोधन का अधिकार केवल संसद को ही दिया है। जब संसद ने विशेष तौर से सर्वसम्मति से एक कानून बना दिया और वह भी जो सीधे तौर पर न्यायिक नियुक्तियों से संबंधित था, तो यह न्यायिक समीक्षा का सामान्य मामला नहीं था, जिसे लागू करने से पहले ही निरस्त करने की जल्दबाजी से बचा जा सकता था।

यदि इसे लागू होने के उपरांत समय की कसौटी पर खरा उतरने का अवसर दिया जाता तो यह स्थापित न्यायिक व्यवस्था एवं गरिमा के हित में होता। इसके क्रियान्वयन उपरांत गुण-दोष के आधार पर यदि यह समीक्षा होती तो जनमानस में इसकी स्वीकार्यता कहीं अधिक होती। इस संबंध में एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता की मुख्य आधार शक्ति जन आस्था होती है। यह आस्था न्यायपालिका के निष्पक्ष एवं पारदर्शी न्याय दर्शन का प्रतिबिंब होती है, जिसके अविरल प्रवाह को बनाए रखना स्वयं न्यायपालिका का मूल दायित्व है। जनमानस में तनिक भी संदेह न्यायिक गरिमा के लिए घातक हो सकता है।

अतः न्यायिक नियुक्तियों के विकल्प में न्यायपालिका से अधिक सावधानी बरतने की अपेक्षा है। बेहतर तो यही होगा कि न्यायिक नियुक्तियों के मामले में न्यायपालिका को स्व-संपूर्णता और मुग्धता के भाव से बाहर निकलना होगा। यह कटु सत्य है कि मानव प्रकृति के स्वाभाविक दोषों से कोई भी व्यक्ति या संस्था पूर्ण रूप से मुक्त नहीं रह सकती। ये दोष मानव स्वभाव के अभिन्न अंग हैं, जिनसे पूर्ण मुक्ति हिमालय की कंदराओं में तपने वाले साधु भी संभवतः प्राप्त नहीं कर सके। अत: किसी भी संस्था को इनसे दूर रखने के लिए व्यवस्थागत छलनी की आवश्यकता है, जिसके मूल में पारदर्शिता हो। अतः न्यायपालिका को पारदर्शिता के साथ आंतरिक समीक्षा के माध्यम से आत्मदर्शन का रास्ता तलाश करना होगा।

(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी एवं हरियाणा विधानसभा के सदस्य हैं)