जब तक मजदूरों की राजनीतिक आवाज मजबूत नहीं होगी तब तक उनकी बेहतरी नहीं हो सकती
जब तक प्रवासी मजदूरों की राजनीतिक आवाज मजबूत नहीं होगी तब तक उनके गृह राज्यों में उनकी बेहतरी नहीं हो सकती।
[ बद्री नारायण ]: कोरोना संकट से निपटने के लिए लगाए गए लॉकडाउन ने हमें अन्य अनेक बातों के साथ यह भी सिखाया है कि जनगणना के आंकड़ों से बाहर निकलकर मजदूरों का एक बड़ा समूह कैसे हमारे जनतंत्र के अनेक दरवाजों की सांकल खटखटा रहा है? इस सामाजिक समूह का चेहरा-मोहरा, दुख-दर्द, संघर्ष कैसा है, इसे आज भारत की जनता बहुत अच्छे से देख रही है।
भारत में प्रवासी मजदूर एक सामाजिक समूह हैं
भारत में प्रवासी मजदूर एक छितरी-बिखरी जनसंख्या भले हों, किंतु बिखरे होने के बावजूद वे एक सामाजिक समूह हैं। उन सबके भीतर एक ही प्रकार का सामाजिक भाव है और यही उन्हेंं एक सामाजिक समुदाय में रूपांतरित करता है। प्रवासी मजदूरों का जिक्र भारतीय इतिहास में शुरू से होता रहा है, किंतु अभी तक या तो इन्हें मात्र श्रमिक मानकर एक समरूपी समूह के रूप में देखा जाता रहा या मात्र जनगणना के आंकड़ों में दर्ज कर छोड़ दिया जाता रहा। अब वे एक बड़ी संख्या में तब्दील हो गए हैं।
प्रवासी मजदूरों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि
अगर 2001 और 2011 के जनगणना के आंकड़ों की तुलना करके देखें तो इनकी संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। 2001 से 2011 के बीच इनकी संख्या में उनकी वृद्धि कहीं तेज हुई है। 2001 में भारत के भीतर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर श्रम करने वाले प्रवासी मजदूरों की संख्या जहां लगभग 30 करोड़ थी वहीं 2011 में यह संख्या बढ़कर 45 करोड़ के आस-पास हो गई। यह विशाल आबादी एक इमोशनल कम्युनिटी के रूप में चुनावी राजनीति की एक प्रभावी संख्या होकर उभरती है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के चुनावों में इनकी संख्या आगे भी प्रभावी भूमिका में रहेगी।
सीएम योगी प्रवासी मजदूरों को लेकर सक्रिय हैं, यूपी में मजदूरों के नाम पर सियासी पारा गरम
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लगातार प्रवासी मजदूरों की समस्याओं के समाधान में लगे हुए हैं। वे इस मामले में खासे सक्रिय हैं। कांग्रेस की नेता प्रियंका गांधी भी लॉकडाउन में दुख झेल रहे प्रवासी मजदूरों के मुद्दों के इर्द-गिर्द एक दबाव सृजित करती दिख रही हैं। उनके साथ-साथ कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी जनतांत्रिक राजनीति को मजदूरों के मुद्दों पर केंद्रित करती दिख रही है। बसपा नेता मायावती और सपा नेता अखिलेश यादव भी प्रवासी मजदूरों के मुद्दों को जिस तरह उठा रहे हैं उससे लगता है कि भविष्य में वे मजदूरों के हितों को लेकर और अधिक सक्रिय होने वाले हैं।
श्रम कानूनों में परिवर्तन का मसला जनचर्चा का विषय बन रहा है
यह भी माना जा रहा है कि बिहार की राजनीति में प्रवासी मजदूरों का मसला शायद निर्णायक होकर उभरे, क्योंकि सबसे अधिक मजदूर इसी राज्य के हैं। मध्य प्रदेश एवं राजस्थान की प्रशासनिक रणनीति भी प्रवासी मजदूरों के मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती दिख रही है। महाराष्ट्र और गुजरात में भी मजदूरों को लेकर अलग तरह की राजनीतिक सक्रियता देखने को मिल रही है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि विभिन्न राज्यों में श्रम कानूनों में परिवर्तन का मसला भी जनचर्चा का विषय बन रहा है।
कटु अनुभव के चलते प्रवासी श्रमिक दूसरे शहरों की ओर शायद ही पलायन करें
लॉकडाउन के दौरान प्रवासी श्रमिकों को जैसे कटु अनुभव हुए हैं उसे देखते हुए यह माना जा रहा है कि वे रोजी-रोटी के लिए दूसरे शहरों की ओर फिर से पलायन करने के लिए शायद ही तैयार हों। कई विश्लेषक मानते हैं कि बहुत संभव है कि कोरोना संकट कम होने के बाद मजदूरों के महानगरों की ओर पलायन की प्रक्रिया थम सकती है।
श्रमिक भी अपना गांव-घर छोड़ने के मूड में नहीं दिख रहे
फिलहाल श्रमिक भी अपना गांव-घर छोड़ने के मूड में नहीं दिख रहे हैं। इसे देखते हुए कई राज्य सरकारें इस कोशिश में हैं कि महानगरों से लौटे मजदूरों के लिए स्थानीय स्तर पर ही रोजगार के मौके उपलब्ध कराए जाएं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, राजस्थान की सरकारें इस दिशा में प्रयास भी कर रही हैं। ऐसे में उस वक्त महानगरों में श्रमिकों की कमी हो सकती है जब कारोबारी गतिविधियों को फिर से शुरू करने की कोशिश की जा रही है। इसके चलते यह भी संभव है कि श्रमिक अब अपने श्रम को मात्र वेतन के रूप में नहीं देखें, वरन अपने लिए बेहतर सुविधाओं की मांग करें ताकि उन्हें फिर से ऐसी स्थितियों से दो-चार न होना पड़े।
धीरे-धीरे मजदूरों का मुद्दा फिर से भारतीय राजनीति के केंद्र में आ जाएगा
वे अपने लिए आवास की बेहतर सुविधा मांग सकते हैं। इसके नतीजे में मजदूरों के पलायन की एक नियंत्रित प्रक्रिया विकसित हो सकती है और हो सकता है कि अब उन्हेंं महानगरों में बेहतर सुविधाएं मिलें, लेकिन सवाल यह है कि उनकी आवाज कौन उठाएगा? क्या छीज चुकी श्रमिक राजनीति उनकी आवाज उठाएगी? ऐसे प्रतीत होता है कि धीरे-धीरे मजदूरों का मुद्दा फिर से भारतीय राजनीति के केंद्र में आ जाएगा।
गरीब मजदूरों की राजनीति उभर सकती है
भूमंडलीकरण से पैदा हुआ और सशक्त हुआ मध्यवर्ग किसी के पक्ष एवं विपक्ष में राय बनाने वाला प्रभावी समुदाय है। उसके राजनीतिक स्वर के मुकाबले गरीब मजदूरों की राजनीति उभर सकती है। फलत: राजनीतिक दलों के सामने यह मजबूरी होगी कि वे मजदूरों से जुड़े मुद्दे उठाएं। यही शायद भविष्य की भारतीय राजनीति का नैतिक पक्ष भी होगा। जनतंत्र में संख्याबल का बड़ा अर्थ होता है। प्रवासी सामाजिक समूहों यानी मजदूरों का संख्याबल कम नहीं है। छितरे-बिखरे होने के बावजूद उनकी अस्मितापरक एकता कमजोर नहीं पड़ने वाली, क्योंकि दुख जोड़ता भी है।
जब तक प्रवासी मजदूरों की राजनीतिक आवाज मजबूत नहीं होगी तब तक उनकी बेहतरी नहीं हो सकती
जो भी हो, जब तक प्रवासी मजदूरों की राजनीतिक आवाज मजबूत नहीं होगी तब तक उनके गृह राज्यों में उनकी बेहतरी नहीं हो सकती। प्रश्न यह है कि उनकी राजनीति कैसी होगी? क्या उनके भीतर से कोई नेतृत्व उभरेगा या राजनीतिक दल उनकी आवाज बनेंगे अथवा ट्रेड-यूनियन की थकी-हरी राजनीति उनका सहारा बनेगी? इतना तय है कि भारतीय जनतांत्रिक राजनीति में प्रवासी श्रमिकों का एक नया दबाव समूह विकसित होने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। इस समूह का विकास किस रूप में होता है, यह देखना है। प्रसिद्ध कवि ब्रेख्त की तर्ज पर कहें तो प्रवासी मजदूरों के बारे में कोई अंतिम बात कहना अभी मुश्किल है।
( लेखक जीबी पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट, प्रयागराज के निदेशक हैं )