आखिर नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हिंसक विरोध प्रदर्शनों का औचित्य क्या है?
यह कानून पाकिस्तान बांग्लादेश और अफगानिस्तान से धार्मिक रूप से प्रताड़ित होकर आने वाले हिंदू सिख बौद्ध जैन पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को नागरिकता देने के लिए भर है।
[अवधेश कुमार]। राजधानी दिल्ली में हिंसा और आगजनी तथा उस पर हो रही राजनीति हर विवेकशील व्यक्ति को आतंकित करने वाला है। जिन लोगों ने आगजनी और हिंसा की वे कहां हैं यह बताना कठिन है, लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि नागरिकता कानून के विरोधी नेताओं में से किसी ने हिंसा की अभी तक निंदा नहीं की है। हां, जामिया मिलिया इस्लामिया के कुछ छात्रों की पुलिस द्वारा पिटाई के खिलाफ माहौल बनाने में अधिकांश नेता आगे हैं।
पुलिस पर आरोप
जामिया के छात्रों का आरोप है कि उन्होंने कुछ किया ही नहीं था, जबकि पुलिस ने परिसर में घुसकर पुस्तकालय में पढ़ रहे छात्रों तक को पीटा। पुलिस पर आंसू गैस के गोले छोड़ने का भी आरोप है। पुलिस कभी खाली जगह पर आंसू गैस के गोले छोड़े यह न देखा गया, न सुना गया। आंसू गैस के गोले प्राय: भीड़ को तितरबितर करने के लिए छोड़े जाते हैं। दरअसल प्रदर्शन के दौरान काफी लोग पुलिस पर पत्थरें फेंक रहे थे तथा भागकर जामिया परिसर में चले जा रहे थे।
परिसर के अंदर से भी पत्थर फेंके जाने के वीडियो सामने आ गए हैं। उसमें पुलिस लाउडस्पीकर से बार-बार पत्थर, कांच आदि नहीं फेंकने की अपील कर रही है। यह जांच का विषय है कि उनमें जामिया के छात्र थे या नहीं, किंतु अगर परिसर के अंदर से हमला हो रहा हो तो उस समय कोई पुलिस समूह विश्वविद्यालय प्रशासन से अनुमति मांगने नहीं जाएगा। वह भी उस परिस्थिति में जब एक ओर आगजनी और तोड़फोड़ हो रही हो।
विश्वविद्यालय परिसर में पुलिस का प्रवेश दुखद है और यह प्रवृत्ति रुकनी चाहिए, लेकिन यह एकपक्षीय नहीं हो सकता। यदि विश्वविद्यालय हिंसा और अवैध गतिविधियों के केंद्र बनेंगे तो पुलिस को कार्रवाई करनी होगी। कोई हिंसा फैलाते हुए परिसर में घुस जाए और हम सोचे कि शिक्षा के मंदिर का ध्यान रखते हुए पुलिस अंदर न जाए यह संभव नहीं। राजधानी में जामिया के आसपास दो दिनों से वातावरण विषाक्त करने की कोशिश हो रही थी। लोगों को घर से निकलकर सड़क पर आने के लिए उकसाया जा रहा था।
जिस तरह भीड़ निकली और उसने तोड़फोड़ आरंभ किया उससे चारों ओर आतंक का वातावरण बना। लोगों के घरों तक पर पत्थर मारे गए। उसके बाद बसों को आग के हवाले किया गया। पुलिस की मोटरसाइकिल भी जली। इतना कुछ होने के बावजूद यदि भीड़ पर गोली नहीं चली तो इसे पुलिस का संयम नहीं तो और क्या कहेंगे। पुलिस और अग्निशमन के अनेक कर्मचारी दूसरी ओर से हमलों से घायल हुए हैं। कई अस्पतालों में पड़े हैं। पांच आइपीएस अधिकारी घायल हुए। इसी तरह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भी हिंसा हुई है।
बेजा डर
एक दूसरा पक्ष है जिसकी चर्चा न विरोधी नेता कर रहे हैं और न इन शैक्षणिक संस्थानों का प्रशासन। अब यहां मूल सवाल पर आएं। आखिर इन विरोध प्रदर्शनों का औचित्य क्या है? जो नागरिकता विधेयक संसद से पारित हुआ और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से कानून बन गया उसमें ऐसा कोई पहलू नहीं है जिससे भारत के किसी समुदाय के नागरिक को किसी तरह का भय होना चाहिए। यह कानून पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से धार्मिक रूप से प्रताड़ित होकर आने वार्ले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को नागरिकता देने के लिए है। इसमें मुलसमानों का विरोध कहां है?
संसद के दोनों सदनों में गृहमंत्री अमित शाह ने साफ-साफ और कई बार कहा कि यह विधेयक किसी की नागरिकता लेने के लिए नहीं देने के लिए है। इससे किसी भी भारतीय मुसलमान को भयभीत होने का कोई कारण नहीं है। मुसलमान भारतीय नागरिक हैं और रहेंगे। बावजूद यदि यह बात फैली कि नागरिकता कानून मुसलमानों के खिलाफ है तो जाहिर है, कुछ अवांछित तत्व इसके पीछे हैं। पूर्वोत्तर का विरोध तो एक हद तक समझ में भी आता हैं। हालांकि उनकी आशंकाओं के निवारण की कोशिश भी पूरी की गई है। बावजूद अपने जातीय, नस्ली परंपराओं, संस्कृति, संसाधनों को लेकर असम की चिंता का और निवारण करने की आवश्यकता है। हालांकि वहां भी अब यह भयावह सच सामने आ रहा है कि नागरिकता कानून के नाम पर मुसलमानों को भड़काया गया था।
अशांति फैलाने की साजिश
मुसलमानों का इसके विरोध में जाने का कोई तार्किक आधार नहीं है। किसी मुसलमान की नागरिकता न छीनी जा रही है और न छीनी जा सकती है। वे सब भारतीय हैं। इस कानून में ऐसा एक शब्द नहीं है जिससे कोई आशंका पैदा हो। तो जिन लोगों ने यह गलतफहमी फैलाकर आम लोगों को भड़काया वे निश्चय ही भारत में सांप्रदायिक हिंसा की भयावह आग लगाना चाहते हैं। इस देश में एक वर्ग है, जिसके अंदर यह छटपटाहट थी कि एक साथ तीन तलाक के विरुद्ध कानून बन गया और कोई बड़ा विरोध नहीं हुआ, उसके बाद अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया गया और देश में शांति बनी रही, अयोध्या पर उच्चतम न्यायालय का फैसला आ गया और कहीं कोई विरोधी स्वर नहीं।
ऐसा ल गता है कि इस वर्ग ने नागरिकता कानून पर भ्रम और डर पैदा कर पूरे भारत में आग लगाने की रणनीति बनाई और उसे अंजाम देने की कोशिश की है। यह अफवाह फैला दी गई कि जामिया के छात्र मारे गए हैं। जामिया की उप कुलपति नजमा अख्तर ने पुलिस के अंदर प्रवेश करने का तो तीखा विरोध किया, लेकिन यह साफ किया कि हमारा कोई छात्र नहीं मारा गया है।
विरोध का अधिकार
हालांकि सबके बावजूद लोकतंत्र में विरोध का अधिकार संविधान देता है। जिसे नागरिकता कानून से असहमति है उसे विरोध करने का पूरा अधिकार है। यहां तक कि अनावश्यक एवं निराधार विरोध प्रदर्शन की भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनुमति है तो जो विरोध करना चाहते हैं वे कर सकते हैं। पर हिंसा, तोड़फोड़ और देश विरोधी नारे तथा किसी समुदाय को भड़काने वाले नारे अपराध की श्रेणी में आएंगे। इसका अधिकार संविधान और कानून किसी को नहीं देता। सच कहें तो किसी तरह इन विरोधों को सामान्य विरोध नहीं माना जा सकता है। इसके पीछे एक समुदाय को भड़काने की गहरी साजिश है। यह जांच एजेंसियों का दायित्व है कि ऐसे चेहरों की पहचान कर उनके खिलाफ कार्रवाई करें। आखिर देश में आग लगाने की चाहत रखने वाले ये कौन लोग हैं? और राजनीति देखिए, दिल्ली के उपमुख्यमंत्री ने ट्वीट कर दिया कि पुलिस ने स्वयं बसों में आग लगाई है और एक वीडियो भी जारी किया। अब इस बात की पुष्टि हो गई है कि पुलिस वाले दरअसल आग बुझा रहे थे।
इतने महत्वपूर्ण पद पर बैठा कोई व्यक्ति यदि ऐसे संवेदनशील मामले पर इस तरह गैर जिम्मेदार टिप्पणियां करे तो फिर आग बुझाएगा कौन? यह नेताओं के गैर जिम्मेदार रवैये का केवल एक उदाहरण है। बहरहाल यह कैसा राजनीतिक समुदाय है जो हिंसा और आगजनी तक का भी खुलकर विरोध नहीं कर सकता! क्यों? राजनीति अपनी जगह है, लेकिन देश में शांति तथा कानून-व्यवस्था कायम रखने के लिए तो एक स्वर में बोलना चाहिए। अगर अपनी इतनी छोटी जिम्मेदारी का भी अहसास हमारे नेताओं को नहीं है तो फिर इनसे क्या उम्मीद की जा सकती है। किंतु नागरिक समाज के नाते हम सबका दायित्व है कि सजग और सतर्क रहें तथा जितना बन पड़े शांति के लिए काम करें।
[वरिष्ठ पत्रकार]
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