अयोध्या के बाद आगे क्या, काशी और मथुरा के मामले हल हों, लेकिन मंदिर-मस्जिद के विवादों से बाहर भी निकले देश
आज यह कहना कठिन है कि काशी एवं मथुरा के मामले कब और किस तरह सुलझेंगे लेकिन यह आसानी से कहा जा सकता है कि इन विवादों की अनदेखी कर आगे नहीं बढ़ा जा सकता। अच्छा यह होगा कि मस्जिद पक्ष की ओर से जो गलती अयोध्या मामले में की गई और एक बड़ा अवसर गंवा दिया गया वह काशी एवं मथुरा के मामले में न हो।
राजीव सचान। राम जन्मभूमि मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने न केवल यह प्रश्न किया था कि अयोध्या के बाद आगे क्या, बल्कि इसका उत्तर देते हुए यह भी कहा था कि हमें आज से, इस पवित्र समय से अगले एक हजार साल के भारत की नींव रखनी है। निःसंदेह ऐसा ही किया जाना चाहिए, लेकिन क्या काशी की ज्ञानवापी और मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद से जुड़े मामलों को ओझल किया जा सकता है?
ये दोनों मामले पहले से ही अदालतों के समक्ष हैं और 1991 के उस पूजास्थल अधिनियम के बाद भी हैं, जो यह कहता है कि धार्मिक स्थलों का चरित्र वैसा ही रहेगा, जैसा 15 अगस्त 1947 को था। कई याचिकाओं के जरिये इस आधार पर इस अधिनियम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है कि यह तो न्याय मांगने के बुनियादी सिद्धांत का ही उल्लंघन करता है। इन याचिकाओं का निर्धारण होना शेष है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दी है कि यह अधिनियम यह जानने पर रोक नहीं लगाता कि किसी धार्मिक स्थल का वास्तविक चरित्र क्या था। इसी कारण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की ओर से ज्ञानवापी परिसर का सर्वे हो सका और शाही ईदगाह मस्जिद का कराए जाने की पहल हो रही है।
राम जन्मभूमि विवाद के समय मंदिर पक्ष की ओर से यह कहा गया था कि यदि अयोध्या, वाराणसी और मथुरा की मस्जिदें उसे मिल जाएं तो वह उन अन्य स्थलों से अपना दावा छोड़ देगा, जहां मंदिरों को ध्वस्त कर मस्जिदें बनाई गईं। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका। अयोध्या में तो प्रमाण खोजने पड़े थे, लेकिन इसके लिए तो किसी साक्ष्य की आवश्यकता ही नहीं कि काशी और मथुरा में मंदिरों को ध्वस्त कर मस्जिदें खड़ी की गईं। खुद औरंगजेब के दरबारी की किताब में यह लिखा गया है कि ऐसा किया गया। इस तथ्य और सत्य को मस्जिद पक्ष भी जान रहा है, लेकिन अब वह तरह-तरह के बहाने बना रहा है।
संसद की ओर से पारित नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वाले अब पूजास्थल अधिनियम का उल्लेख कर संविधान की दुहाई दे रहे हैं। ऐसा करने वाले मूर्तिभंजक औरंगजेब को दयालु शासक साबित करने की भी हास्यास्पद कोशिश कर रहे हैं। इसी के साथ वे अब अपने इस इस्लामी सिद्धांत से भी मुंह मोड़ रहे हैं कि झगड़े या किसी अन्य की इबादत वाली जगह पर बनाई गई मस्जिद में पढ़ी गई नमाज स्वीकार नहीं होती।
यदि यह इस्लामी सिद्धांत तनिक भी मूल्य-महत्व रखता है तो फिर काशी और मथुरा में जबरन बनाई गई मस्जिदों पर नमाज पढ़ने की जिद का क्या औचित्य? यह तर्क बिल्कुल सही है कि जो औरंगजेब ने किया, उसके लिए आज के मुसलमान जिम्मेदार नहीं ठहराए जा सकते, लेकिन यह तब दम तोड़ देता है कि जब इस बर्बर मुगल शासक के अत्याचारों को जायज ठहराने की कोशिश की जाती है या फिर इस प्रश्न से मुंह चुराया जाता है कि आखिर ज्ञानवापी परिसर की दीवारों पर अंकित देवी-देवताओं की प्रतिमाएं, हिंदू धर्म में महत्व रखने वाले प्रतीक और संस्कृत के श्लोक क्या कह रहे हैं?
आज यह कहना कठिन है कि काशी एवं मथुरा के मामले कब और किस तरह सुलझेंगे, लेकिन यह आसानी से कहा जा सकता है कि इन विवादों की अनदेखी कर आगे नहीं बढ़ा जा सकता। अच्छा यह होगा कि मस्जिद पक्ष की ओर से जो गलती अयोध्या मामले में की गई और एक बड़ा अवसर गंवा दिया गया, वह काशी एवं मथुरा के मामले में न हो। इन मामलों को आपसी बातचीत से सुलझाने की आवश्यकता है।
यह काम तभी हो सकता है, जब मस्जिद पक्ष की ओर से सत्य को स्वीकार किया जाए। इसी के साथ उसकी इस आशंका का निवारण भी किया जाए कि आखिर काशी और मथुरा जैसे कितने मामले हैं? मंदिर पक्ष के लोग यह दावा करने में लगे हुए हैं कि ऐसे मंदिरों की संख्या सैकड़ों-हजारों में है, जिन्हें तोड़कर वहां मस्जिदें बनाई गईं।
इससे इन्कार नहीं कि औरंगजेब जैसे शासकों ने बड़ी संख्या में मंदिरों को तोड़ा और इसी कारण उत्तर भारत में कोई प्राचीन मंदिर मुश्किल से ही मिलता है, लेकिन उनकी संख्या को लेकर अलग-अलग दावे हैं। कोई सैकड़ों मंदिरों को गिना रहा है तो कोई हजारों। यदि इन सैकड़ों-हजारों दावों पर बल दिया गया तो फिर हमारे समक्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत की ओर से किया गया यह प्रश्न उपस्थित हो जाएगा कि हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना? कई लोगों को यह प्रश्न नहीं रास आया था, लेकिन आखिर इस पर तो विचार करना ही होगा कि देश कब तक मंदिर-मस्जिद विवाद में उलझा रहेगा?
काशी और मथुरा जैसे मामले तो समझ आते हैं, क्योंकि वे सदियों से आस्था के बड़े केंद्र होने के साथ देश की अस्मिता और उसकी संस्कृति-सभ्यता से जुड़े हैं, लेकिन क्या अन्य सैकड़ों-हजारों मंदिरों को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है? क्या काशी और मथुरा के मंदिरों की तरह इन सैकड़ों-हजारों मंदिरों के भग्नावशेषों और उनके परिसरों में अनवरत पूजा-पाठ होता चला आ रहा है?
मंदिर पक्ष को मंदिरों को तोड़कर बनाई गई मस्जिदों पर दावा इस आधार पर नहीं करना चाहिए कि मस्जिद पक्ष अयोध्या पर राजी नहीं हुआ और काशी एवं मथुरा पर सुलह-समझौते को लेकर सकारात्मक रवैया नहीं प्रदर्शित कर रहा है, इसलिए अब हम इतने स्थानों पर दावा करेंगे। निःसंदेह काशी एवं मथुरा जैसे मामले सुलझने ही चाहिए, लेकिन इसी के साथ मंदिर-मस्जिद विवादों से बाहर निकलने की कोई राह भी खोजी जानी चाहिए। इसी में सबका हित है।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)