विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों में उच्च पदों पर विशेषज्ञता वाले लोगों की एक प्रकार से सीधी भर्ती अर्थात लेटरल एंट्री वाला विज्ञापन वापस लेने से यही स्पष्ट हो रहा है कि मोदी सरकार दबाव में आ गई। दबाव केवल विपक्षी दलों का ही नहीं था, बल्कि सहयोगी दलों का भी था।

चंद्रबाबू नायडू ने तो लेटरल एंट्री के जरिये अनुभवी लोगों की भर्ती की पहल का समर्थन किया, लेकिन चिराग पासवान खुलकर विरोध में आ गए। एक अन्य प्रमुख सहयोगी दल जदयू के नेताओं ने भी लेटरल एंट्री का विरोध कर दिया।

इससे तो यही लगता है कि मोदी सरकार ने इस पहल को आगे बढ़ाने के पहले अपने सहयोगी दलों से विचार-विमर्श ही नहीं किया। यदि वास्तव में ऐसा नहीं किया गया तो यह उसकी रणनीतिक चूक ही है। केंद्र सरकार को यह आभास होना चाहिए था कि विपक्ष जिस तरह हर मामले में आरक्षण के मुद्दे को तूल देने के साथ संविधान के खतरे में होने का हौवा खड़ा कर रहा है, उसके चलते वह इस पहल के खिलाफ भी खड़ा हो सकता है।

यह निराशाजनक है कि मोदी सरकार न तो विपक्ष की संभावित प्रतिक्रिया का अनुमान लगा सकी और न ही अपने सहयोगी दलों को साथ ले सकी। यह ठीक है कि मोदी सरकार अपने-अपने क्षेत्र के कुशल लोगों की प्रशासन में भर्ती की पहल से पीछे नहीं हटेगी, लेकिन उसे जिस तरह अपने कदम खींचने पड़े, उससे एक मजबूत सरकार की उसकी छवि को धक्का लगा है।

प्रशासन में अनुभवी लोगों की सेवाएं लिया जाना कोई नई-अनोखी बात नहीं है। इसका सिलसिला तो प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समय ही शुरू हो गया था। इसके बाद की सरकारों में भी यह सिलसिला कायम रहा। अनेक ऐसे उच्च पदों पर विशेषज्ञों को लाया गया, जिन्हें आइएएस, आइएफएस आदि संभालते थे। मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह अहलूवालिया आदि लेटरल एंट्री के जरिये ही उच्च पदों पर आए।

इसी तरह अनेक राजदूत भी गैर-आइएफएस नियुक्त किए गए। प्रशासन के साथ शासन में भी अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ लोगों की सेवाएं ली गईं। आधार की पहल को अंजाम देने के लिए नंदन नीलकेणी को लाया गया था। विपक्षी नेता और विशेष रूप से राहुल गांधी इस सबसे अनजान नहीं हो सकते, लेकिन वह नकारात्मक और विभाजनकारी राजनीति का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं।

यह उनकी मौकापरस्ती ही है कि एक समय वह खुद लेटरल एंट्री के जरिये प्रशासन में पूर्व सैन्य अधिकारियों की भर्ती का वादा कर रहे थे, लेकिन अब उसके खिलाफ खड़े हो गए और वह भी तब, जब यह कहीं नहीं कहा गया था कि आरक्षित तबकों के लोग लेटरल एंट्री का हिस्सा नहीं बन सकते। अमेरिका जैसे देशों में भी सकारात्मक कार्रवाई के रूप में आरक्षण है, लेकिन वहां भी लेटरल एंट्री की व्यवस्था है। यह ठीक नहीं कि अपने देश में आरक्षण को हर मर्ज की दवा बनाया जा रहा है।