ज्ञानवापी पर निर्णय, पूजा स्थल कानून की गहन समीक्षा की है आवश्यकता
वैसे तो ज्ञानवापी परिसर का धार्मिक स्वरूप जानने के लिए किसी शोध अथवा जांच-परख की आवश्यकता ही नहीं क्योंकि यह न केवल खुली आंखों से दिखता है कि मंदिर को ध्वस्त कर मस्जिद खड़ी की गई बल्कि इसके प्रमाण भी हैं।
बहुचर्चित ज्ञानवापी मामले में वाराणसी के जिला जज के निर्णय ने यह स्पष्ट कर दिया कि अब यह प्रकरण लंबी कानूनी प्रक्रिया का सामना करेगा। यह निर्णय अपेक्षा के अनुरूप ही है, क्योंकि यह तथ्य साक्षात दिखता है कि ज्ञानवापी परिसर में मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी। जिला जज ने न केवल यह पाया कि यह मामला सुनवाई योग्य है, बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि इस विवाद में 1991 का पूजा स्थल संबंधी कानून लागू नहीं होता।
ध्यान रहे कि ऐसा ही सुप्रीम कोर्ट ने तब कहा था, जब वहां इस आशय की याचिका पेश की गई थी कि पूजा स्थल कानून के चलते इस मामले की किसी अदालत में सुनवाई नहीं हो सकती। तब सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया था कि उक्त कानून यह पता करने पर रोक नहीं लगाता कि किसी उपासना स्थल का धार्मिक स्वरूप क्या है।
वैसे तो ज्ञानवापी परिसर का धार्मिक स्वरूप जानने के लिए किसी शोध अथवा जांच-परख की आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि यह न केवल खुली आंखों से दिखता है कि मंदिर को ध्वस्त कर मस्जिद खड़ी की गई, बल्कि इसके प्रमाण भी हैं। इसके बावजूद विधि के शासन का तकाजा यही कहता है कि ऐसे सभी मामलों का निस्तारण अदालतें करें, जिनके बारे में यह विवाद है कि वहां मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गईं।
एक उपाय यह भी है कि दोनों पक्ष ऐसे विवादों को आपसी सहमति से सुलझाएं, लेकिन अयोध्या प्रकरण में जो कुछ हुआ, उसे देखते हुए इसके आसार कम ही हैं। चूंकि ज्ञानवापी जैसा मामला मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि मंदिर पर बनी शाही ईदगाह मस्जिद का भी है इसलिए इस पर आश्चर्य नहीं कि यह प्रकरण भी अदालतों के समक्ष है।
समझना कठिन है कि मुस्लिम धर्मगुरु और नेता इस सच को स्वीकार करने से क्यों इन्कार कर रहे हैं कि विदेशी आक्रमणकारियों और उनके वंशजों ने सैकड़ों मंदिरों का ध्वंस कर वहां मस्जिदें बनवाईं? सच का सामना करने से इन्कार करना खुद को धोखे में रखने के साथ सामाजिक सद्भाव की स्थापना में बाधक बनना भी है। यह हास्यास्पद है कि ऐसा करने वाले ही गंगा-जमुनी तहजीब की बात करते हैं। क्या यह तहजीब यही कहती है कि हिंदू समाज अपने मंदिरों के ध्वंस की अनदेखी कर दे? दुर्भाग्य से पूजा स्थल कानून इस अनदेखी की ही वकालत करता है।
इस पर आश्चर्य नहीं कि भारतीय अस्मिता के साथ हुए अन्याय की अनदेखी करने वाले इस कानून की वैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। कानून समस्याओं को सुलझाने के लिए बनाए जाते हैं, लेकिन पूजा स्थल कानून तो उन पर पर्दा डालने के लिए लाया गया था। ऐसे कानून की गहन समीक्षा होनी ही चाहिए।