पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद विपक्षी गठबंधन आइएनडीआइए की बैठक पर इसलिए सभी की निगाहें होंगी, क्योंकि पिछले कुछ समय से इस गठजोड़ के घटक दलों के बीच सहयोग-समन्वय के स्थान पर तनातनी ही अधिक देखने को मिल रही थी। विधानसभा चुनावों के दौरान तो यह तनातनी तल्खी में बदल गई थी और इसी कारण छह दिसंबर को बुलाई गई बैठक को टालना पड़ा था।

कहना कठिन है कि आइएनडीआइए की प्रस्तावित बैठक में किन विषयों पर सहमति बनेगी, लेकिन इस गठबंधन के नेताओं को यह आभास होना चाहिए कि उनके पास समय कम है। अगले आम चुनाव की घोषणा होने में तीन माह से भी कम का समय रह गया है। यदि आइएनडीआइए के घटक दल सीटों के बंटवारे को लेकर किसी सर्वमान्य फार्मूले पर सहमत नहीं हो पाते तो उनके लिए अपनी एकजुटता बनाए रहना कठिन हो सकता है।

चूंकि हाल में हिंदी पट्टी के तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा, इसलिए उसे अपने सहयोगी दलों के दबाव का सामना करना होगा। इन तीनों राज्यों के नतीजों ने कांग्रेस की सौदेबाजी की सामर्थ्य को कुंद करने का काम किया है। इसके बाद भी उसके लिए ऐसे किसी फार्मूले को स्वीकार करना शायद ही संभव हो कि वह केवल उन्हीं सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़े, जहां उसका भाजपा से सीधा मुकाबला है।

यदि कांग्रेस आइएनडीआइए की एकजुटता बनाए रखने के लिए करीब दो सौ सीटों पर ही चुनाव लड़ने पर सहमत हो जाती है तो यह उसके लिए आत्मघाती सिद्ध हो सकता है, क्योंकि वह उन राज्यों में अपने बचे-खुचे जनाधार को भी गंवा सकती है, जहां गठबंधन के घटक दलों का दबदबा है।

एक समस्या यह भी है कि कुछ घटक दल अपने प्रभाव वाले राज्यों में कांग्रेस को कोई भाव नहीं दे रहे हैं। दिल्ली और पंजाब में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी इन दोनों राज्यों में कांग्रेस को कोई रियायत देने को तैयार नहीं दिख रही है। बीते दिनों ही आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने यह कहा कि उन्हें पंजाब की सभी 13 सीटें चाहिए। वह दिल्ली की भी सभी सात सीटों पर अपना दावा ठोंक दें तो हैरानी नहीं।

बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी यह कह चुकी हैं कि उनके राज्य में कांग्रेस के लिए बस दो ही सीटें हैं। जहां ममता बनर्जी को बंगाल में कांग्रेस और वाम दलों का गठजोड़ स्वीकार्य नहीं, वहीं केरल में वाम मोर्च की सरकार का नेतृत्व कर रहे मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने राहुल गांधी को वायनाड से चुनाव न लड़ने की सलाह देने के साथ ही यह भी कह दिया कि वह वहां अपना प्रत्याशी खड़ा करेंगे। उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड के साथ-साथ तमिलनाडु एवं महाराष्ट्र में भी कांग्रेस के सहयोगी दल उस पर कम से कम सीटों पर चुनाव लड़ने का दबाव बनाएं तो आश्चर्य नहीं।