यह समझना कठिन है कि लोकसभा में आपातकाल के खिलाफ लाए गए प्रस्ताव को लेकर कांग्रेस ने हंगामा करना आवश्यक क्यों समझा? क्या कांग्रेस आपातकाल को सही मानती है या फिर यह चाहती है कि लोकतंत्र को कलंकित करने और संविधान का निरादर करने वाले इस तानाशाही भरे कदम का स्मरण नहीं किया जाना चाहिए?

यदि ऐसा कुछ नहीं है तो फिर उसे स्पष्ट करना चाहिए कि लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने आपातकाल के संदर्भ में जो कुछ कहा, उससे उसे शिकायत क्यों है? यदि कांग्रेस को आपातकाल के दौरान मारे और प्रताड़ित किए गए लोगों की याद में दो मिनट के मौन का प्रस्ताव रास नहीं आया तो हंगामा करने की क्या जरूरत थी?

अच्छा तो यह होता कि वह यह कहने की हिम्मत जुटाती कि 49 साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से देश पर आपातकाल थोपने और राजनीतिक विरोधियों, मीडिया एवं जनता के खिलाफ दमन का चक्र चलाना एक भूल थी। यदि आज की कांग्रेस इंदिरा गांधी और उनके सहयोगियों की भूल को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं तो कम से कम उसके नेताओं को चुप रहना चाहिए था या फिर सदन से बाहर चले जाना चाहिए था।

कांग्रेस के नेताओं और उसके समर्थकों की ओर से आपातकाल के संदर्भ में यह जो कहने की कोशिश की जा रही है कि पांच दशक पुराने इस काले दौर का स्मरण नहीं किया जाना चाहिए, वह इसलिए किसी भी मूल्य पर स्वीकार नहीं, क्योंकि अतीत की भूलों को विस्मृत करने से उनके दोहराए जाने का खतरा बढ़ जाता है।

कांग्रेस को आपातकाल की याद दिलाना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि पिछले कुछ समय से वह संविधान के खतरे में होने का फर्जी हौवा खड़ा कर उसके प्रति प्रतिबद्धता जताने में लगी हुई है।

यदि वह संविधान के प्रति इतनी ही अधिक प्रतिबद्ध है तो फिर यह क्यों नहीं स्वीकार करना चाहती कि इंदिरा गांधी ने अपनी संसद सदस्यता खारिज किए जाने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए आपातकाल का सहारा लिया और इस क्रम में इसी संविधान को कुचला और उसकी प्रस्तावना को मनमाने तरीके से बदल दिया।

यह ठीक है कि हाल के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का संख्या बल बढ़ा है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह दबे-छिपे स्वर में आपातकाल को सही ठहराने की कोशिश करती दिखने लगे। उसकी यह कोशिश तो आपातकाल के स्मरण को और अधिक आवश्यक ठहराती है।

आपातकाल के खिलाफ लोकसभा अध्यक्ष की ओर से लाए गए प्रस्ताव पर असहमति और असंतोष जताने से बेहतर होता कि कांग्रेस इस पर गौर करती कि उसके कुछ सहयोगी दलों ने भी इस मामले में उसका साथ देना आवश्यक नहीं समझा। आखिर वे समझते ही क्यों, क्योंकि आपातकाल के दौरान उनके नेताओं को भी जेल में ठूंस दिया गया था। इनमें मुलायम सिंह यादव भी थे।