पूजा के अधिकार की वापसी, दीवार पर लिखी इबारत को देखने-पढ़ने से जानबूझकर इन्कार करता मस्जिद पक्ष
वाराणसी की जिला अदालत ने सात दिन के अंदर पूजा की व्यवस्था करने के आदेश दिए हैं। हैरानी नहीं कि इसके पहले ही उसके फैसले को उच्चतर न्यायालयों में चुनौती दी जाए। जो भी हो किसी को यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि मंदिर पक्ष केवल इससे संतुष्ट होने वाला है कि उसे ज्ञानवापी परिसर के तहखाने में पूजा का वह अधिकार मिल गया।
वाराणसी की जिला अदालत ने ज्ञानवापी परिसर में स्थित व्यासजी के तहखाने में पूजा की अनुमति देने का निर्णय देकर केवल न्याय ही प्रदान नहीं किया, बल्कि उस गलती को सुधारने का काम भी किया, जो 1993 में मुलायम सिंह सरकार ने की थी। मुलायम सिंह सरकार ने इस तहखाने में पूजा-पाठ पर प्रतिबंध पूजा स्थल अधिनियम के अस्तित्व में आने के बावजूद लगा दिया था।
यह प्रतिबंध मनमाना और अवैध ही नहीं था, बल्कि एक तरह से 1991 के पूजा स्थल अधिनियम का शर्मनाक उल्लंघन भी था। यह अधिनियम यह कहता है कि किसी धार्मिक स्थल का चरित्र बदला नहीं जाएगा, लेकिन तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार ने व्यासजी के तहखाने में पूजा पर प्रतिबंध लगाकर ठीक यही काम किया। विडंबना यह है कि हिंदू श्रद्धालुओं के पूजा के अधिकार का दमन करने वाले इस प्रतिबंध के हटने में 31 वर्ष लग गए।
वाराणसी की जिला अदालत ने सात दिन के अंदर पूजा की व्यवस्था करने के आदेश दिए हैं। हैरानी नहीं कि इसके पहले ही उसके फैसले को उच्चतर न्यायालयों में चुनौती दी जाए। जो भी हो, किसी को यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि मंदिर पक्ष केवल इससे संतुष्ट होने वाला है कि उसे ज्ञानवापी परिसर के तहखाने में पूजा का वह अधिकार मिल गया, जो करीब तीन दशक पहले उससे छीन लिया गया था।
किसी को ऐसी अपेक्षा इसलिए नहीं करनी चाहिए, क्योंकि हाल में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यानी एएसआइ की ओर से ज्ञानवापी परिसर में किए गए सर्वे से यह प्रमाणित हुआ कि यहां मंदिर को तोड़कर उसके ऊपर मस्जिद खड़ी की गई थी।
वैसे तो यह पहले से ही स्पष्ट था कि तथाकथित ज्ञानवापी मस्जिद एक मंदिर पर खड़ी की गई इमारत है, लेकिन एएसआइ के सर्वे ने इसके अकाट्य प्रमाण भी प्रस्तुत कर दिए। इन्हें किसी के लिए नकारना संभव नहीं है, लेकिन यह देखना दुखद है कि मस्जिद पक्ष और कई मजहबी एवं सियासी मुस्लिम नेता एएसआइ की सर्वे रपट को खारिज करने में जुटे हैं। यह दीवार पर लिखी इबारत को देखने-पढ़ने से जानबूझकर इन्कार करने के अलावा और कुछ नहीं।
मस्जिद पक्ष वैसी ही हठधर्मिता दिखा रहा है, जैसी उसने अयोध्या मामले में दिखाई थी। जब यह एक सर्वमान्य और अकाट्य साक्ष्यों से प्रमाणित तथ्य है कि मुगल शासकों समेत अन्य मुस्लिम शासकों ने मंदिरों को ध्वस्त कर वहां मस्जिदें खड़ी कीं, तब न्याय और नैतिकता का तकाजा यही कहता है कि कम से कम उन पर से तो दावा छोड़ ही दिया जाए, जो हिंदुओं के लिए बहुत अधिक मायने रखते हैं।
मस्जिद पक्ष एक ओर तो यह कहता है कि आज के मुसलमानों का औरंगजेब से कोई लेना-देना नहीं, लेकिन इसके साथ ही वह उसके दुष्कृत्यों का बचाव भी करता है। एक त्रासदी यह भी है कि मुस्लिम नेता इस हकीकत से भी मुंह मोड़ रहे हैं कि उनके पूर्वज हिंदू ही थे।