केंद्र सरकार ने एक देश-एक चुनाव पर पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द की अध्यक्षता में एक समिति गठित कर यह स्पष्ट कर दिया कि वह लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव कराने को लेकर गंभीर है। यह कोई नया विचार नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी एक लंबे समय से एक साथ चुनाव की पैरवी करते रहे हैं। उनके पहले लालकृष्ण आडवाणी भी इसकी आवश्यकता जताते रहे हैं।

2018 में विधि आयोग ने भी एक देश-एक चुनाव की पहल का समर्थन करते हुए एक रिपोर्ट दी थी, जिसमें यह रेखांकित किया गया था कि इसके लिए कुछ संवैधानिक संशोधन करने होंगे। यह कोई बहुत कठिन कार्य नहीं। विगत में निर्वाचन आयोग भी यह कह चुका है कि वह लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव कराने में सक्षम है।

इस पर आश्चर्य नहीं कि एक देश-एक चुनाव पर समिति गठन की घोषणा होते ही कुछ नेताओं ने उसका विरोध करना शुरू कर दिया है। कुछ ने तो इसे असंभव या फिर असंवैधानिक भी बता दिया है। ऐसे नेता इस तथ्य की जानबूझकर अनदेखी कर रहे हैं कि 1967 तक लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ ही होते थे। यह सिलसिला मुख्यतः इसलिए बाधित हो गया, क्योंकि अनुच्छेद 356 का मनमाना इस्तेमाल करके राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया जाने लगा।

जो लोग लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने के विचार का विरोध कर रहे हैं, उन्हें इससे परिचित होना चाहिए कि कई देशों में एक साथ ही चुनाव होते हैं। कुछ देशों में तो केंद्र के साथ राज्यों और स्थानीय निकायों के चुनाव भी एक साथ करा लिए जाते हैं। यह भी एक तथ्य है कि 2019 में लोकसभा चुनाव के साथ ही आंध्र प्रदेश, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में विधानसभा चुनाव कराए गए थे। यदि चार राज्यों में विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ हो सकते हैं तो सभी राज्यों में क्यों नहीं?

कुछ क्षेत्रीय दल इस तर्क के जरिये एक साथ चुनाव के विचार का विरोध करते रहे हैं कि लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर होते हैं और यदि ये मुद्दे राज्यों के मुद्दों पर हावी हो जाएंगे तो इससे उन्हें नुकसान होगा। यदि ऐसा है तो फिर यह तो हो ही सकता है कि लोकसभा चुनाव के दो–ढाई वर्ष बाद सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ करा लिए जाएं। इससे भी समय और संसाधनों की अच्छी-खासी बचत होगी।

अच्छा हो कि एक साथ चुनाव की पहल का विरोध कर रहे नेता दलगत हितों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दें और इस पर ध्यान दें कि बार-बार चुनाव होते रहने से एक तो संसाधनों की बर्बादी होती है और दूसरे आचार संहिता लागू होते रहने के कारण विकास के काम भी अटकते हैं। इसके अलावा राजनीतिक दल रह-रहकर चुनाव होते रहने के चलते सदैव चुनावी मुद्रा में बने रहते हैं और राष्ट्रहित के विषयों पर कम ध्यान दे पाते हैं।