संविधान पर भरोसा, आम जनता को सचेत करन के लिए संवैधानिक मूल्यों की उपेक्षा को रोकना जरूरी
संविधान दिवस के अवसर पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने भी एक कार्यक्रम को संबोधित किया और उसमें उन्होंने यह कहा कि पिछले सात दशकों में सर्वोच्च न्यायालय ने लोगों की अदालत के तौर पर काम किया है। निसंदेह ऐसा ही हुआ है लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि अब आम लोग अंतिम विकल्प के रूप में या फिर मजबूरी में ही अदालतों का दरवाजा खटखटाते हैं।
यह अच्छा हुआ कि संविधान दिवस के अवसर पर देश भर में अनेक कार्यक्रम आयोजित किए गए। इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने भी अपने रेडियो कार्यक्रम मन की बात के माध्यम से भारतीय संविधान की महत्ता पर प्रकाश डाला। ऐसा करते हुए उन्होंने यह जो कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण था कि संविधान का पहला संशोधन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने से संबंधित था, वह एक ऐसा तथ्य है जिससे कोई भी इन्कार नहीं कर सकता।
पहले संविधान संशोधन के जरिये केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित ही नहीं किया गया, बल्कि असहमति को दबाने के भी कई काम किए गए। इसके चलते कुछ पुस्तकों और फिल्मों पर न केवल प्रतिबंध लगाए गए, बल्कि कुछ लोगों को जेल में भी डाला गया।
प्रधानमंत्री ने यह भी याद दिलाया कि 44वें संविधान संशोधन के जरिये आपातकाल के समय की गईं गलतियों को ठीक किया गया, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सभी गलतियों को ठीक नहीं किया जा सका। न केवल यह सवाल उठना चाहिए कि संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलरिज्म और समाजवाद शब्द क्यों जोड़े गए, बल्कि उसका समाधान भी किया जाना चाहिए। इसलिए किया जाना चाहिए, क्योंकि सेक्युलरिज्म की अवधारणा को विकृत करने का काम किया गया है और ऐसे तौर-तरीके अपनाए गए हैं जो इस तथ्य को कमजोर करते हैं कि संविधान की निगाह में सभी बराबर हैं।
संविधान दिवस के अवसर पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने भी एक कार्यक्रम को संबोधित किया और उसमें उन्होंने यह कहा कि पिछले सात दशकों में सर्वोच्च न्यायालय ने लोगों की अदालत के तौर पर काम किया है। नि:संदेह ऐसा ही हुआ है, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि अब आम लोग अंतिम विकल्प के रूप में या फिर मजबूरी में ही अदालतों का दरवाजा खटखटाते हैं।
इसका एक बड़ा कारण अदालतों की लंबी कार्यवाही और फैसला सुनाने में देरी होना है। इस बात को तो सभी स्वीकारते हैं कि हमारी अदालतें लोगों को समय पर न्याय नहीं दे पा रही हैं, लेकिन इस समस्या को दूर करने के लिए वांछित उपाय नहीं किए जा रहे हैं। जब लोगों को समय पर न्याय नहीं मिलता तो न्याय प्रक्रिया के साथ-साथ संविधान के प्रति भी भरोसा घटता है।
उचित यह होगा कि हमारे नीति-नियंता यह समझें कि संविधान की उन खामियों को दूर किया जाए जिनके चलते लोग उसके प्रति सच्चे मन से अपनी आस्था व्यक्त नहीं कर पा रहे हैं। यदि संविधान के प्रति लोगों की आस्था को सुदृढ़ करना है और नियम-कानूनों के पालन के प्रति आम जनता को सचेत करना है तो विभिन्न स्तरों पर संवैधानिक मूल्यों की जो उपेक्षा हो रही है, उनके कारणों की पहचान कर उनका निवारण करना होगा।