दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय अधिवक्ता सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह जो कहा कि न्यायिक प्रक्रिया में जिस भाषा का उपयोग किया जाता है, वह न्याय सुनिश्चित करने में एक बड़ी भूमिका निभाती है, उससे शायद ही कोई असहमत हो सके। इस अवसर पर उन्होंने यह बताया कि उनकी सरकार इस पर विचार कर रही है कि कानून दो तरह से बनाए जाएं। कानूनों का एक मसौदा उस भाषा में हो, जिसका उपयोग न्यायालय करते हैं और दूसरा उस भाषा में, जिसे आम आदमी समझ सके। यह काम होना ही चाहिए, क्योंकि तभी आम लोग कानूनों को सही तरह समझ सकेंगे।

वैसे प्रश्न यह भी उठता है कि आम आदमी को समझ आने वाली भाषा का उपयोग न्यायालयों में क्यों नहीं हो सकता? यदि ऐसा हो सके, जो कि आसानी से संभव भी है तो फिर कानूनों का मसौदा दो तरह से तैयार करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। केवल कानूनों की भाषा ही ऐसी नहीं होनी चाहिए, जो आम आदमी को समझ आ सके, बल्कि इसकी भी व्यवस्था होनी चाहिए कि लोगों को उनकी भाषा में न्याय मिल सके। निचली अदालतों में तो ऐसा होता है, लेकिन अधिकांश उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में ऐसा नहीं होता। वहां समस्त कार्यवाही अंग्रेजी में ही होती है। क्या यह विचित्र नहीं कि उच्चतर न्यायालयों में लोगों को अपनी भाषा में न्याय नहीं मिल पा रहा है?

हाल में सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था की है कि उसके निर्णयों के मुख्य हिस्सों का स्थानीय भाषाओं में अनुवाद किया जाए। अब तक उसके कई फैसलों का हिंदी, बांग्ला, गुजराती, तमिल, उड़िया आदि भाषाओं में अनुवाद किया भी जा चुका है, लेकिन आवश्यकता इसकी है कि लोगों को उनकी भाषा में न्याय दिया जाए और फिर उसे अंग्रेजी में अनूदित कर दिया जाए। कम से कम सभी उच्च न्यायालयों में तो यह काम होना ही चाहिए। यह ठीक नहीं कि पहले अंग्रेजी भाषा में कानून बनें और फिर उनका अनुवाद हिंदी एवं अन्य भाषाओं में हो।

आखिर ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि कानून मूलतः हिंदी में बनें, फिर उनका अनुवाद अन्य भारतीय भाषाओं के साथ अंग्रेजी में किया जाए? जब विश्व के अनेक देशों में स्थानीय भाषा में कानून बनने के साथ न्याय भी दिया जा सकता है तो भारत में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? यह ठीक नहीं कि अपने देश में अधिकतर सरकारी काम अंग्रेजी में ही होते हैं। एक समस्या यह भी है कि अंग्रेजी से भारतीय भाषाओं में अनुवाद आम आदमी की समझ में आने लायक भाषा में नहीं हो पाता। कई बार तो अनुवाद की भाषा इतनी दुरूह होती है कि कुछ समझ ही नहीं आता। आज जब मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई भारतीय भाषाओं में होने लगी है, तब फिर कानून भी भारतीय भाषाओं में बनने चाहिए और उच्चतर न्यायालयों में न्याय भी अपनी भाषा में मिलना चाहिए।