आम चुनावों की घोषणा के साथ ही दुनिया के सबसे बड़े चुनावों की प्रक्रिया शुरू हो गई। पहले चरण का मतदान 19 अप्रैल को और आखिरी चरण का एक जून को होगा। परिणाम चार जून को आएंगे। यह एक लंबी चुनाव प्रक्रिया है। यह ठीक है कि जिस चुनाव में लगभग 97 करोड़ मतदाताओं को भागीदारी करनी हो, उसमें कुछ तो समय लगेगा ही, लेकिन अच्छा होता कि कहीं कम चरणों में चुनाव संपन्न कराने के प्रयत्न किए जाते। वैसे तो 2019 में भी सात चरणों में मतदान हुआ था और उसके पहले 2014 में नौ चरणों में, लेकिन 2009 में पांच चरणों में ही चुनाव करा लिए गए थे। लंबी चुनावी प्रक्रिया खर्चीली ही नहीं, उबाऊ भी होती है और आचार संहिता के चलते बहुत से सरकारी काम ठप हो जाते हैं।

चुनाव लोकतंत्र का अनिवार्य अंग हैं और उन्हें निष्पक्ष तरीके से संपन्न कराने के लिए हरसंभव कदम उठाए जाने चाहिए, लेकिन यह भी ठीक नहीं कि उनके चलते दो माह से अधिक समय तक तमाम सरकारी कामकाज रुके पड़े रहें। जहां निर्वाचन आयोग को भविष्य में कम से कम समय में चुनाव कराने के जतन करने चाहिए, वहीं राजनीतिक दलों को लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव कराने के प्रस्ताव पर उदारता से विचार करना चाहिए। इस बार लोकसभा के साथ ही चार राज्यों ओडिशा, आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम के विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। एक साथ चुनाव की पहल का विरोध करने वालों को बताना चाहिए कि यदि लोकसभा के साथ चार राज्यों के विधानसभा चुनाव हो सकते हैं तो अन्य राज्यों के क्यों नहीं हो सकते?

निःसंदेह समय के साथ चुनावों में बाहुबल की भूमिका कम हुई है, लेकिन वह पूरी तौर पर समाप्त नहीं हुई। बंगाल में अभी भी बाहुबल की खतरनाक भूमिका देखने को मिलती है। चुनावों में धनबल की भी भूमिका बढ़ी है। गुपचुप रूप से पैसे और सामग्री बांटकर लोगों के वोट खरीदने की प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा है। हैरानी नहीं कि निर्वाचन आयोग इसे भी एक चुनौती के रूप में देख रहा है। इसके अलावा उसके समक्ष एक नई चुनौती फर्जी सूचनाएं भी हैं। यह चुनाव डिजिटल दुनिया में भी लड़ा जाएगा और यह किसी से छिपा नहीं कि इस दुनिया में फर्जी खबरों का कितना बोलबाला है। निर्वाचन आयोग आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन को भी अपने लिए एक चुनौती के रूप में देख रहा है। यह चुनौती है तो इसीलिए, क्योंकि अनेक नेता मर्यादा में रहकर चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं होते। वास्तव में उन पर तब तक लगाम नहीं लग सकती, जब तक निर्वाचन आयोग को उनके खिलाफ ठोस कार्रवाई करने के लिए पर्याप्त अधिकार नहीं मिलते। चूंकि चुनाव लोकतंत्र का उत्सव होते हैं, इसलिए जनता को राष्ट्रहित को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए अधिकाधिक मतदान प्रतिशत सुनिश्चित करना चाहिए। हमारा लोकतंत्र इससे ही सबल होगा।