घाटे का व्यापार, चीन से आने वाले सामान पर कम करनी होगी निर्भरता
देश के उद्योग जगत को यह समझना होगा कि घाटे के लिए एक बड़े हद तक वही जिम्मेदार है। हमारे उद्योग जगत को चीनी वस्तुओं पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए कमर कसनी होगी। विश्व के अनेक देश चीनी उत्पादों पर अपनी निर्भरता कम करना चाहते हैं।
अंततः यह आशंका सही सिद्ध हुई कि चीन के साथ व्यापार घाटा सौ अरब डालर को पार कर सकता है। ताजा आंकड़े बता रहे हैं कि बीते वर्ष भारत-चीन के बीच 135 अरब डालर का जो द्विपक्षीय कारोबार हुआ, उसमें जहां चीन से होने वाला आयात 118 अरब डालर रहा, वहीं भारत की ओर से उसे किया जाने वाला निर्यात 17 अरब डालर तक ही सीमित रहा। यह पहली बार है, जब चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा सौ अरब डालर के आंकड़े को पार कर गया। यह इसलिए विशेष चिंता का विषय है, क्योंकि ऐसा मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत अभियान के बाद भी हुआ।
इसका सीधा अर्थ है कि इसकी गहन समीक्षा करनी होगी कि ये दोनों अभियान अपेक्षा पर खरे क्यों नहीं उतर पा रहे हैं? इसी के साथ यह भी देखना होगा कि उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना यानी पीएलआइ स्कीम वांछित परिणाम क्यों नही दे पा रही है? चीन जिस तरह भारतीय हितों को चोट पहुंचाने के साथ सीमा पर आक्रामक रवैया अपनाए हुए है, उसे देखते हुए यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि वहां से आने वाली सामग्री पर निर्भरता कम की जाए।
निःसंदेह जहां सरकार को यह देखना होगा कि चीन से व्यापार घाटा बढ़ता क्यों जा रहा है, वहीं उद्योग जगत को भी यह समझना होगा कि इस घाटे के लिए एक बड़ी हद तक वही जिम्मेदार है। हमारे उद्योग जगत को चीनी वस्तुओं पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए कमर कसनी होगी। समझना कठिन है कि जिस तरह खिलौना उद्योग में चीन के प्रभुत्व को चुनौती दी गई, उसी तरह अन्य क्षेत्रों में क्यों नहीं दी जा सकती और वह भी ऐसे समय जब विश्व के अनेक देश चीनी उत्पादों पर अपनी निर्भरता कम करना चाहते हैं। अच्छा हो कि भारतीय उद्योगपति इस अवसर का लाभ उठाएं। वे ऐसा करने में तभी सक्षम हो सकते हैं, जब तकनीक का उपयोग करने के साथ अपनी उत्पादकता बढ़ाने और साथ ही अपने उत्पादों की गुणवत्ता सुधारने पर अतिरिक्त ध्यान देंगे।
यदि भारत को वास्तव में विकसित देश बनना है तो एक ओर जहां चीनी उत्पादों पर निर्भरता कम करनी होगी, वहीं दूसरी ओर विश्व बाजार में उसके उत्पादों से प्रतिस्पर्द्धा भी करनी होगी। इसका कोई औचित्य नहीं कि भारतीय उद्योगपति वे वस्तुएं भी चीन से मंगाएं, जिन्हें देश में बनाया जा सकता है। यह ध्यान रहे कि एक समय दवाओं में उपयोग होने वाला कच्चा माल यानी एपीआइ भारत में ही तैयार होता था, लेकिन धीरे-धीरे वह चीन में बनने लगा और फिर भारतीय फार्मा उद्योग उसे वहीं से मंगाने लगा। आज स्थिति यह है कि हमारा फार्मा उद्योग चीनी एपीआइ पर निर्भर है। यह समझ आता है कि कच्चा माल चीन से आए, लेकिन इसका कोई अर्थ नहीं कि तैयार माल भी वहीं से आए।