संसद के बजट सत्र के पहले आयोजित सर्वदलीय बैठक में शामिल सत्तापक्ष और विपक्ष के नेताओं ने संसद के सुचारु संचालन के संदर्भ में चाहे जो कुछ कहा हो, अंदेशा इसी बात का अधिक है कि यह सत्र पिछले सत्र की तरह हंगामेदार हो सकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अब आम तौर पर यही होता है।

चूंकि इस बार विपक्ष का संख्या बल अधिक है, इसलिए उसका आक्रामक होना स्वाभाविक है, लेकिन आक्रामकता का अर्थ यह नहीं हो सकता कि संसद को चलने ही न दिया जाए। दुर्भाग्य से अब ऐसा ही अधिक होता है और इसकी झलक संसद के पिछले सत्र में साफ तौर पर देखने को मिली थी।

हालांकि कांग्रेस लोकसभा में 99 सीटों तक ही पहुंच सकी है, लेकिन वह ऐसा प्रदर्शित कर रही है जैसे वह भाजपा को परास्त कर उससे आगे निकल गई है। निःसंदेह संसद की कार्यवाही चलाना सत्तापक्ष की जिम्मेदारी है, लेकिन यदि विपक्ष यह ठान ले कि उसे सहयोग, समन्वय और संवाद की राह पर नहीं चलना है तो फिर सत्तापक्ष भी कुछ नहीं कर सकता।

संसद के इस सत्र में केवल बजट ही पेश नहीं होना है, बल्कि कुछ महत्वपूर्ण विधेयक भी प्रस्तुत होने हैं। इसके अतिरिक्त विपक्ष कुछ ज्वलंत विषयों पर चर्चा के लिए भी कमर कसे हुए है। निश्चित रूप से इन विषयों पर चर्चा होनी ही चाहिए। जहां विपक्ष का यह दायित्व है कि वह संसद में राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों को उठाए वहीं सत्तापक्ष की भी यह जिम्मेदारी है कि वह इन मुद्दों पर चर्चा करने के लिए तैयार दिखे। देखना है कि ऐसा हो पाता है या नहीं।

संसद के इस सत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच जिन मुद्दों पर टकराव हो सकता है, उनमें लोकसभा का डिप्टी स्पीकर पद भी है। विपक्ष यह पद अपने लिए चाह रहा है, लेकिन सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच जैसे संबंध हैं, उसमें इसके आसार कम ही हैं कि सरकार यह पद विपक्ष को देने के लिए तैयार होगी।

हां, इसकी संभावना अवश्य है कि वह यह पद अपने सहयोगी दलों और विशेष रूप में टीडीपी अथवा जदयू में से किसी को दे सकती है। इसके आसार इसलिए भी हैं, क्योंकि इन दोनों दलों की ओर से अपने-अपने राज्यों के लिए विशेष दर्जे की मांग की जा सकती है।

बिहार और आंध्र प्रदेश को केंद्र सरकार से कुछ विशेष सहायता की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन इन राज्यों में सत्तारूढ़ दलों को एक तो नियम-कानूनों के दायरे में रहते हुए अपनी मांग करनी होगी और दूसरे, राष्ट्रीय हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी।

यही अपेक्षा विपक्षी दलों से भी की जाती है। अब यदि विपक्षी दल कहीं अधिक संख्या बल से लैस हैं तब फिर उनसे और विशेष रूप से कांग्रेस से राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देने और साथ ही एक राजनीतिक दल के रूप में परिपक्व व्यवहार करने की अपेक्षा है।