रूस में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति के बीच द्विपक्षीय वार्ता के बाद दोनों देशों के संबंध सामान्य होने की संभावना बढ़ अवश्य गई है, लेकिन इसमें समय लगेगा, क्योंकि बीते चार वर्षों में चीन ने अपनी हरकतों से भारत का भरोसा खोने का काम किया है। भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति के बीच करीब पांच वर्षों के बाद विस्तार से वार्ता इसीलिए हो सकी, क्योंकि चीन देपसांग एवं डेमचोक से अपनी सेनाएं पीछे हटाने और सीमा पर निगरानी की पहली वाली स्थिति बहाल करने पर सहमत हुआ। यह अच्छा हुआ कि प्रधानमंत्री मोदी ने चीनी राष्ट्रपति को संबोधित करते हुए इस पर जोर दिया कि सीमा पर शांति रहनी चाहिए और आपसी विश्वास एवं सहयोग को बढ़ावा देने के साथ एक-दूसरे की संवेदनशीलता का सम्मान किया जाना चाहिए।

यह कहना आवश्यक था, क्योंकि चीन यह तो चाहता है कि भारत उसके हितों को लेकर अतिरिक्त सावधानी बरते, लेकिन खुद उसकी ओर से भारत की संवेदनशीलता की परवाह नहीं की जाती। इसका प्रमाण यह है कि वह कभी कश्मीर तो कभी अरुणाचल प्रदेश को लेकर मनगढ़ंत दावे करता रहता है। इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि चीन किस तरह पाकिस्तान को भारत के खिलाफ मोहरे की तरह इस्तेमाल करता है। इस क्रम में वह पाकिस्तान के उन आतंकियों का संयुक्त राष्ट्र में बचाव तक करता है, जो भारत के लिए खतरा हैं। ऐसे में भारत का उसके प्रति संशकित रहना स्वाभाविक ही है।

यह ठीक है कि रूस में भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति की मुलाकात के बाद दोनों देशों के विशेष प्रतिनिधि भी शीघ्र मिलेंगे। इस मेल-मुलाकात में विश्वास बहाली के उपायों पर चर्चा हो सकती है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि ऐसा पहले भी हो चुका है। अब चीन को यह आभास कराया जाना चाहिए कि उसने पहले गलवन और फिर अन्य स्थानों पर नियंत्रण रेखा में यथास्थिति बदलने के जो प्रयत्न किए, उसने ही दोनों देशों के संबंधों को पटरी से उतारने का काम किया। इसके लिए चीन अपने अलावा अन्य किसी को दोष नहीं दे सकता।

भारत को चीन से संबंध सामान्य करने की दिशा में आगे बढ़ने के पहले इसकी पड़ताल करनी चाहिए कि कहीं वह फिर से वैसी हरकत तो नहीं करेगा, जैसी डोकलाम, गलवन, देपसांग आदि में की। यह ध्यान रहे कि अतीत में चीन ने अपने अतिक्रमणकारी रवैये को तभी छोड़ा है, जब भारत ने यह जताने में संकोच नहीं किया कि वह बहुपक्षीय सहयोग के ब्रिक्स और एससीओ जैसे संगठनों को अपेक्षित महत्व देने से इन्कार कर सकता है। इस बार चीन इसलिए भी झुका, क्योंकि उसे यह आभास हुआ कि भारत का असहयोग उसके आर्थिक हितों पर प्रतिकूल असर डाल सकता है। निःसंदेह संबंध सामान्य होने से चीन के आर्थिक हित सधेंगे, लेकिन भारत को अपने आर्थिक हितों की रक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी।