जागरण संपादकीय: जेपीसी बैठक में अनर्थ, सहमति की राजनीति पर गंभीर चोट
Kalyan Banerjee जेपीसी बैठक में जो कुछ हुआ वह सहमति की राजनीति पर गंभीर चोट करने वाला है। ऐसा नहीं होना चाहिए। इसमें संदेह नहीं कि वक्फ अधिनियम में संशोधन बहस का विषय है लेकिन बहस का मतलब उग्र व्यवहार नहीं हो सकता। आखिर संसद या फिर उसकी समितियों में सदस्य अपनी बात तर्कसंगत तरीके से क्यों नहीं रख सकते?
इससे अधिक शर्मनाक और कुछ नहीं कि वक्फ विधेयक पर विचार कर रही संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी की बैठक में तृणमूल कांग्रेस सांसद कल्याण बनर्जी न केवल आपा खो बैठे, बल्कि उन्होंने कांच की बोतल तोड़कर उसे समिति के अध्यक्ष जगदंबिका पाल की ओर फेंका भी। चूंकि कल्याण बनर्जी कुछ ज्यादा ही आवेश में थे, इसलिए वह खुद को चोटिल कर बैठे, लेकिन इसके लिए वह सहानुभूति के पात्र नहीं हो सकते। इस पर आश्चर्य नहीं कि उनके अराजक आचरण के लिए उन्हें एक दिन के लिए निलंबित कर दिया गया, लेकिन क्या यह पर्याप्त है?
कल्पना करें कि तब क्या होता, जब उनकी ओर से फेंकी गई कांच की टूटी बोतल किसी को लग जाती। यदि उनकी नाराजगी भाजपा सांसद अभिजीत गंगोपाध्याय से थी तो उन्होंने समिति के अध्यक्ष को निशाने पर क्यों लिया? कल्याण बनर्जी अपने तीखे तेवरों के लिए जाने जाते हैं, लेकिन ऐसे तेवर वाले किसी भी सांसद से वैसे आचरण की अपेक्षा नहीं की जाती, जैसा उन्होंने किया। यह ध्यान रहे कि वह अपने अमर्यादित आचरण के लिए एक बार राज्यसभा से भी निलंबित किए जा चुके हैं। वह राज्यसभा के सभापति की नकल कर उनका उपहास उड़ा रहे थे। लगता है अब संसद की समितियां भी उस रोग से ग्रस्त हो गई हैं, जो लोकसभा और राज्यसभा में देखने को मिलता है और जिसके नतीजे में संसद में अब किसी विषय पर मुश्किल से ही कोई सार्थक चर्चा हो पाती है। इसका एक बड़ा कारण दलगत राजनीतिक स्वार्थ हैं। जब अपेक्षा यह है कि संसद में पक्ष-विपक्ष के सदस्य दलगत हितों से ऊपर उठें, तब यह देखना दयनीय है कि संसद की समितियों में भी ऐसा नहीं हो पा रहा है। यह और कुछ नहीं, संसदीय व्यवहार का क्षरण ही है।
जेपीसी बैठक में जो कुछ हुआ, वह सहमति की राजनीति पर गंभीर चोट करने वाला है। ऐसा नहीं होना चाहिए। इसमें संदेह नहीं कि वक्फ अधिनियम में संशोधन बहस का विषय है, लेकिन बहस का मतलब उग्र व्यवहार नहीं हो सकता। आखिर संसद या फिर उसकी समितियों में सदस्य अपनी बात तर्कसंगत तरीके से क्यों नहीं रख सकते? आम तौर पर कोई तब बौखलाहट का परिचय देता है, जब वह अपनी बात तार्किक ढंग से कहने में सक्षम नहीं होता या फिर विपरीत विचार को सुनने के लिए तैयार नहीं होता। यह ठीक है कि विपक्ष वक्फ अधिनियम में किसी भी तरह के बदलाव का विरोधी है, लेकिन आखिर उसे यह क्यों नहीं सहन हो रहा कि सत्तापक्ष इस अधिनियम में बदलाव आवश्यक समझ रहा है? प्रश्न यह भी है कि क्या सरकार को किसी नियम-अधिनयम में संशोधन-परिवर्तन इसलिए नहीं करना चाहिए कि विपक्ष को यह पसंद नहीं? किसी विषय पर विपक्ष के विचार सत्तापक्ष से अलग हो सकते हैं, लेकिन इसके आधार पर वह सरकार से शासन चलाने का अधिकार नहीं छीन सकता।