अंतरराष्ट्रीय विषयों पर चर्चा के मंच रायसीना डायलाग में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने लगातार दूसरे दिन सुरक्षा परिषद में सुधार के मुद्दे को उठाते हुए जिस तरह पश्चिमी देशों के प्रतिकूल रवैये के साथ चीन की अड़ंगेबाजी का पुनः उल्लेख किया, उससे यही स्पष्ट हुआ कि भारत इस मामले को छोड़ने वाला नहीं है। जैसे-जैसे भारत का कद बढ़ रहा है, वैसे-वैसे वह सुरक्षा परिषद में सुधार की आवश्यकता को जोर-शोर से रेखांकित कर रहा है। ऐसा करके वह यही प्रकट कर रहा है कि विश्व समुदाय सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के दावे की अनदेखी नहीं कर सकता। यह ठीक है कि सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों में से अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस समय-समय पर भारत की दावेदारी का समर्थन करते रहे हैं, लेकिन जहां वे इस संस्था में सुधार के लिए जरूरी प्रतिबद्धता का परिचय नहीं दे रहे हैं, वहीं चीन यह चाहता ही नहीं कि भारत को स्थायी सदस्यता मिले। वह भारत के बढ़ते अंतरराष्ट्रीय प्रभाव को सहन नहीं कर पा रहा है। इसी कारण भारतीय विदेश मंत्री ने यह कहने में संकोच नहीं किया कि सुरक्षा परिषद में सुधार की राह में सबसे बड़ी बाधा पश्चिमी देश नहीं हैं। इसमें संदेह नहीं रह जाता कि उनका स्पष्ट संकेत चीन की ओर ही है। विश्व व्यवस्था के लिए खतरा बना चीन अपनी संकीर्णता का परित्याग शायद ही करे, लेकिन अन्य प्रमुख देशों को तो यह समझना ही होगा कि यदि सुरक्षा परिषद में सुधार नहीं हुआ तो यह संस्था अपना प्रभाव पूरी तरह खो देगी। वह पहले से ही वैश्विक समस्याओं का समाधान करने में विफल और असहाय साबित हो रही है।

चूंकि विदेश मंत्री जयशंकर यह मान रहे हैं कि सुरक्षा परिषद में सुधार में लंबा समय लगेगा, इसलिए एक ओर जहां यह आवश्यक है कि भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस संस्था की स्थायी सदस्यता पाने की कोशिश जारी रखे, वहीं दूसरी ओर अपनी आर्थिक क्षमता को बढ़ाने पर विशेष ध्यान दे। भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी आर्थिक सामर्थ्य बढ़ाने के साथ अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक क्षमता को भी और अधिक सुदृढ़ करना होगा। जब भारत आर्थिक एवं सामाजिक रूप से और अधिक सक्षम बनेगा, तब विश्व के बड़े देशों के लिए उसकी अनदेखी करना कठिन हो जाएगा। जैसे सरकार के लिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि भारत की आर्थिक ताकत बढ़े, उसी तरह भारतीय उद्योग जगत को भी चीनी कंपनियों की तरह अपना अंतरराष्ट्रीय प्रभाव और बढ़ाना होगा। यह समय की मांग है कि अधिकाधिक भारतीय कंपनियों की गिनती विश्व की बहुराष्ट्रीय कंपनियों में हो। इसी के साथ भारत के लोगों को भी अपने कार्य-व्यवहार को लेकर और अधिक सजग रहना होगा, क्योंकि आज के युग में किसी देश की पहचान उसके नागरिकों के आचरण से भी बनती है। वास्तव में भारत जितना समर्थ बनेगा, वह सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का उतना ही स्वाभाविक दावेदार होगा।