संकट में हिमाचल सरकार, कम नहीं हो रहीं कांग्रेस की मुश्किलें
कांग्रेस नेतृत्व को यह बताना होगा कि जिस सुखविंदर सिंह सरकार ने अभी अपना डेढ़ वर्ष का कार्यकाल भी पूरा नहीं किया वह इतनी जल्दी अपने ही विधायकों के असंतोष से कैसे घिर गई? लोकसभा चुनाव के पहले हिमाचल का संकट यही बता रहा कि कांग्रेस नेतृत्व पार्टी को संभालने और उसे ऊर्जा दे पाने में नाकाम है। यह संदेश कांग्रेस को मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर ही करेगा।
हिमाचल प्रदेश में सुखविंदर सिंह सुक्खू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार फिलहाल तो बच गई, क्योंकि 15 भाजपा विधायकों को सदन से निलंबित कर बजट पारित करा लिया गया, लेकिन यदि विद्रोही तेवरों वाले कांग्रेस विधायकों का असंतोष दूर नहीं हुआ तो संकट बरकरार रह सकता है। हिमाचल में कांग्रेस को दोहरा झटका लगा।
एक तो छह विधायकों की क्रास वोटिंग के कारण भाजपा के हर्ष महाजन राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी को हराने में सफल रहे और दूसरे, इन विधायकों के विद्रोह के चलते सरकार अल्पमत में दिखने लगी। इन विधायकों की मान-मनुहार के बीच मंत्री विक्रमादित्य सिंह ने त्यागपत्र देकर संकट और बढ़ा दिया।
उन्होंने त्यागपत्र तो वापस ले लिया, लेकिन क्या वह अपनी मांगों से पीछे हटने को तैयार हैं? इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद विक्रमादित्य सिंह की मां और सांसद प्रतिभा सिंह ने मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी पेश की थी, जिसे खारिज कर सुखविंदर सिंह सुक्खू को कमान सौंपी गई थी।
वह पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वीरभद्र सिंह की पत्नी हैं। कांग्रेस ऐसी स्थिति में नहीं दिख रही कि वह असंतुष्ट विधायकों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर खुद को संभाल सके। विक्रमादित्य सिंह के साथ-साथ विद्रोह करने वाले विधायक भी नेतृत्व परिवर्तन चाहते हैं। पता नहीं आगे क्या होगा, लेकिन इतना अवश्य है कि कांग्रेस केवल यह कहकर कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकती कि उसके विधायकों की बगावत के पीछे भाजपा का हाथ है और वह छल-बल से उसकी सरकार गिराना चाहती है। परस्पर विरोधी दल तो एक-दूसरे के नेताओं के असंतोष का लाभ उठाने की ताक में रहते ही हैं।
कांग्रेस नेतृत्व को यह बताना होगा कि जिस सुखविंदर सिंह सरकार ने अभी अपना डेढ़ वर्ष का कार्यकाल भी पूरा नहीं किया, वह इतनी जल्दी अपने ही विधायकों के असंतोष से कैसे घिर गई? आखिर ऐसा भी नहीं है कि असंतोष की खबरें सार्वजनिक न हुई हों। आम तौर पर जहां जो दल सत्ता में होते हैं, वे राज्यसभा चुनाव में विपक्षी विधायकों को अपने पाले में लाने में सफल होते हैं, जैसा कि उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में हुआ, लेकिन हिमाचल में तो उलटा हुआ।
यह भी कांग्रेस के कमजोर राजनीतिक प्रबंधन का प्रमाण है कि वह तीन निर्दलीय विधायकों को अपने पक्ष में मानकर चल रही थी, लेकिन उनके साथ उसके अपने छह विधायकों ने भाजपा के राज्यसभा प्रत्याशी को जिताया। इसका मतलब है कि कांग्रेस नेतृत्व को इसकी भनक ही नहीं लगी कि पार्टी में क्या चल रहा था? लगता है वह इस सवाल का जवाब खोजने को तैयार नहीं कि उसके नेताओं की निष्ठा कमजोर क्यों होती जा रही है? लोकसभा चुनाव के पहले हिमाचल का संकट यही बता रहा कि कांग्रेस नेतृत्व पार्टी को संभालने और उसे ऊर्जा दे पाने में नाकाम है। यह संदेश कांग्रेस को मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर ही करेगा।