वह शुभ घड़ी आ गई, जिसकी प्रतीक्षा वर्षों नहीं, दशकों नहीं, बल्कि सदियों से थी। एक स्वप्न साकार हो रहा है, जो न केवल खुली आंखों से देखा गया, बल्कि जिसके लिए सतत प्रयत्न किए गए और साधना के साथ संघर्ष के पथ पर भी चला गया। अनेकानेक बाधाओं के बाद भी राम जन्मस्थान पर उनके नाम के मंदिर को स्थापित करने का हिंदू समाज का संकल्प कभी डिगा नहीं। इसी संकल्प का परिणाम है कि अयोध्या में राम मंदिर अपने भव्य रूप में आकार ले रहा है।

यह मात्र एक मंदिर नहीं है। यह भारत की संस्कृति और अस्मिता का प्रतीक है। एक स्वाभिमानी राष्ट्र अपने ऐसे ही प्रतीकों से ऊर्जा प्राप्त करता है। राम मंदिर भारत की चेतना का पर्याय है और इसका भी कि राम जन-जन की स्मृति में कितने गहरे रचे-बसे हैं। यह हाल के इतिहास में पहली बार है, जब किसी समाज ने अपने प्रेरणा पुरुष के जन्मस्थान एवं उनके उपासना स्थल को अतिक्रमण और अवैध कब्जे से न्यायपूर्वक छुड़ाने में सफलता प्राप्त की। इसी कारण राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह देश-विदेश में कोने-कोने में बसे भारतीयों को भाव विभोर कर रहा है और विश्व की जिज्ञासा का केंद्र बन गया है।

यह भारत ही नहीं, विश्व इतिहास में सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय महत्व का सबसे बड़ा आयोजन है। इस आयोजन को लेकर उमड़ा भावनाओं का ज्वार ऐसे प्रश्नों का उत्तर दे रहा है कि राम मंदिर का निर्माण क्यों आवश्यक था और हिंदू समाज उसके लिए इतनी व्यग्रता से क्यों प्रतीक्षा कर रहा था? अच्छा होता कि यह प्रतीक्षा स्वतंत्रता के बाद ही पूरी हो जाती, लेकिन संकीर्ण राजनीतिक कारणों और सेक्युलरिज्म की विजातीय-विकृत अवधारणा के चलते ऐसा नहीं हो सका।

यह एक बड़ी विडंबना रही कि अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की हिंदू समाज की सदियों पुरानी स्वाभाविक अभिलाषा की न केवल अनदेखी की गई, बल्कि उसका उपहास भी उड़ाया गया। राम मंदिर आंदोलन के समय यह कार्य कथित सेक्युलर तत्वों, अपने वोट बैंक को भुनाने के लिए किसी भी हद तक जाने वाले राजनीतिक दलों और भारतीयता को नकारने वाले बुद्धिजीवियों ने तो किया ही, मीडिया के एक बड़े हिस्से ने भी किया, लेकिन दैनिक जागरण ने सदैव इस पर बल दिया कि अयोध्या में कथित बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम का मंदिर ही बनना चाहिए और इसलिए बनना चाहिए, क्योंकि राम जन्मस्थल पर कथित बाबरी मस्जिद का निर्माण भारत की सभ्यतागत चेतना एवं संस्कृति को अपमानित करने के लिए किया गया एक आघात था।

चूंकि दैनिक जागरण ने सदैव इस पर जोर दिया कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम का मंदिर समस्त मर्यादाओं का पालन करते हुए ही बनना चाहिए, इसलिए दिसंबर 1992 में जब विवादित ढांचे को ढहा दिया गया तो तत्कालीन प्रधान संपादक स्वर्गीय नरेन्द्र मोहन जी ने लिखा, ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसा नहीं होना चाहिए था।’ उन्होंने अपने संपादकीय और विशेष रूप से अपने लोकप्रिय स्तंभ ‘विचार प्रवाह’ के माध्यम से बार-बार इसे रेखांकित किया कि राम मंदिर का निर्माण इसलिए आवश्यक है, ताकि राष्ट्रीय चेतना जाग्रत हो सके और राष्ट्रीय स्वाभिमान फिर से स्थापित हो सके। उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर भी इसके लिए प्रयत्न किए और इस संदर्भ में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव से कई बार भेंट भी की।

अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण केवल राम काज नहीं है। यह राष्ट्र काज है। भव्य राम मंदिर के निर्माण के संकल्प की पूर्ति वैसा ही राष्ट्रीय उत्तरदायित्व है, जैसा सोमनाथ मंदिर के पुनरुद्धार का था। राम मंदिर के निर्माण को दलगत राजनीति का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए था। दुर्भाग्य से ऐसा ही किया गया। इसके दुष्परिणाम राष्ट्र को भोगने पड़े। उनसे सबक लेने की आवश्यकता है।

यह विचित्र है कि कुछ लोग अभी भी राम मंदिर को लेकर अपनी असहमति व्यक्त कर रहे हैं और ऐसे प्रश्न उछाल रहे हैं कि क्या देश को अस्पतालों, स्कूलों आदि के निर्माण को प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए? क्या राम मंदिर निर्माण से देश की समस्याओं का समाधान हो जाएगा? क्या ऐसी बातें करने वालों के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर है कि राम मंदिर का निर्माण न करने से देश की समस्याओं का समाधान हो जाता?

ऐसे बेतुके प्रश्न पहली बार नहीं उठ रहे। अंतरिक्ष अभियानों को लेकर भी ऐसे ही प्रश्न किए जाते रहे हैं। ऐसे प्रश्न करने वाले इससे जानबूझकर अनजान बने रहना चाहते हैं कि किसी भी राष्ट्र के नागरिकों को केवल उन्नत भौतिक सुविधाएं ही नहीं चाहिए होतीं, उन्हें अपनी आत्मिक सुख-शांति के लिए संस्कृति एवं स्वाभिमान के प्रेरक स्थल भी चाहिए होते हैं। राम मंदिर एक ऐसा ही स्थल है। प्राण प्रतिष्ठा समारोह केवल आस्था का उत्सव नहीं है। यह अन्याय के प्रतिकार के साथ भारतीय सभ्यता और स्वाभिमान के गौरव गान का भी उत्सव है। इस महान उत्सव पर सभी को बधाई।