जागरण संपादकीय: त्रस्त करती न्याय प्रक्रिया, प्रधान न्यायाधीश ने आम आदमी की पीड़ा को दी आवाज दी
भारत के प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने शनिवार को वैकल्पिक विवाद निवारण तंत्र के रूप में लोक अदालतों की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा कि लोग अदालतों के मामलों से इतने तंग आ गए हैं कि वे बस समझौता चाहते हैं। लोक अदालतें ऐसा मंच हैं जहां न्यायालयों में लंबित या मुकदमेबाजी से पहले के विवादों और मामलों का निपटारा या सौहार्दपूर्ण ढंग से समझौता किया जाता है।
लोक अदालतों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश ने यह कहकर आम आदमी की पीड़ा को आवाज दी कि लोग न्याय प्रक्रिया से इतने त्रस्त हो गए हैं कि समझौता करना पसंद करते हैं। निःसंदेह उन्होंने सच्चाई बताई, लेकिन सच की स्वीकारोक्ति मात्र से समस्या का समाधान नहीं होता।
प्रश्न यह है कि न्यायपालिका और विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट इसके लिए क्या करने जा रहा है, जिससे लोग न्याय प्रक्रिया से हताश-निराश होकर समझौता करने के लिए बाध्य न हों? दुर्भाग्य से यह प्रश्न दशकों से अनुत्तरित है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि न्याय प्रक्रिया को सरल और सुगम बनाने के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाए गए।
न्याय में देरी को लेकर न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के स्तर पर रह-रहकर चिंता तो प्रकट की जाती रही, लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया जा सका, जिससे लोगों को समय पर न्याय मिल सके। यह ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश ने त्रस्त करने वाली न्याय प्रक्रिया को लेकर यह भी कहा कि यह स्थिति हम न्यायाधीशों के लिए चिंता का विषय है, लेकिन यदि इस समस्या का निदान नहीं होता तो फिर एक कटु सच्चाई बताने का क्या लाभ?
इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि केवल निचली अदालतों और उच्च न्यायालयों में ही मामले लंबित नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट में भी मामले लंबित हैं। सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या लगभग 80 हजार है। उच्च न्यायालयों में इनकी संख्या 62 लाख के करीब है और निचली अदालतों में करीब साढ़े चार करोड़।
इसका अर्थ है कि लगभग पांच करोड़ लोग न्याय के लिए प्रतीक्षारत हैं। इनमें से अनेक मामले ऐसे हैं, जो दशकों से लंबित हैं। स्वयं सुप्रीम कोर्ट में दशकों पुराने कई मामले लंबित हैं।
इससे इनकार नहीं कि अपने देश में आबादी के अनुपात में न्यायालयों और न्यायाधीशों की पर्याप्त संख्या नहीं है और यह संख्या बढ़ाने की आवश्यकता है, लेकिन यदि अदालतों में तारीख पर तारीख का सिलसिला कायम रहता है तो उनकी संख्या बढ़ाने से भी कोई लाभ मिलने वाला नहीं।
उचित यह होगा कि अदालती मामलों का एक तय समय में निपटारा किया जाना सुनिश्चित किया जाए। यदि निचली अदालतें तय समय में किसी मामले का निपटारा कर दें तो उच्चतर अदालतें भी एक निश्चित समय में उस पर अपना फैसला दें। इसके अलावा यह भी आवश्यक है कि सरकारें मुकदमेबाजी से बाज आएं, क्योंकि सबसे बड़ी मुकदमेबाज तो वे खुद हैं।
यह सही है कि तीन नए आपराधिक कानूनों पर अमल से यह आशा जगी है कि मुकदमों की सुनवाई द्रुत गति से होगी, लेकिन देखना यह है कि ऐसा हो पाता है या नहीं? प्रश्न यह भी है कि आखिर करोड़ों लंबित मामलों का क्या होगा? ये वे प्रश्न हैं, जिनके उत्तर देश की जनता को चाहिए। जनता समस्याओं का उल्लेख नहीं, बल्कि उनका समाधान चाहती है।