डॉ. एके वर्मा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में लगातार तीसरी बार राजग की सरकार ने कामकाज संभाल लिया है। हालांकि भाजपा को पूर्ण बहुमत प्राप्त न होने और समर्थन के लिए घटक दलों पर निर्भरता ने मोदी के समक्ष कुछ राजनीतिक चुनौतियां उत्पन्न कर दी हैं। लोकतंत्र में विपक्ष को भी सरकार के कार्यों की आलोचना एवं विरोध का अधिकार है।

यह विरोध रचनात्मक होना चाहिए तभी उचित है। ऐसे विरोध के अभाव में सरकारें निरंकुश हो जाएंगी। हालांकि राजनीतिक संस्कृति में पतन के चलते विपक्ष रचनात्मक विरोध और स्वस्थ आलोचना नहीं करता। सरकारें भी विपक्ष का सहयोग नहीं लेना चाहतीं। इससे टकराव बढ़ता है। इस तरह देखें तो न केवल सहयोगियों, बल्कि विपक्ष के मोर्चे पर भी कुछ चुनौतियां मोदी की प्रतीक्षा कर रही हैं।

पहले विपक्ष की ही चर्चा करें तो उसकी पूरी कोशिश रहेगी कि घटक दलों पर निर्भर मोदी सरकार को अस्थिर किया जाए। इसके लिए तेदेपा और जदयू को ढाल बनाकर मोदी सरकार पर उसके प्रहार जारी रहेंगे। दूसरी ओर प्रधानमंत्री मोदी चाहेंगे कि सहयोगी दलों को हरसंभव तरीके से साध कर रखा जाए और संभावना बने तो नए सहयोगी भी तलाशे जाएं।

चुनाव परिणामों के बाद से विपक्ष विशेषकर कांग्रेसी ऐसे व्यवहार कर रहे हैं, जैसे असली विजेता वही हों और मोदी पराजित हुए हों। विपक्षी नेताओं ने प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण समारोह का बहिष्कार कर और लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनकर इतिहास रचने पर उन्हें बधाई न देकर सामान्य शिष्टाचार का उल्लंघन किया है।

ऐसे विपक्ष से संसदीय कार्यों में सहयोग की अपेक्षा सरकार कैसे कर सकती है? मौजूदा संसद सत्र में यदि विपक्ष केवल धरना-प्रदर्शन और नारेबाजी में ही लगा रहा तो नीतिगत विचार-विमर्श एवं निर्णय कब और कैसे होंगे? ऐसे में सरकार को कुछ लचीला रवैया अपनाकर विपक्ष से संवाद की पहल करनी होगी। विपक्ष को भी लगना चाहिए कि निर्णयन प्रक्रिया में उसकी भी सहभागिता है।

सहयोगी दलों से तालमेल मोदी सरकार की दूसरी चुनौती है। वैसे तो राजग में कई दल हैं, लेकिन जदयू और तेदेपा खास हैं, क्योंकि उनके बिना सरकार का बहुमत प्रभावित होगा। भाजपा ने बिहार में नीतीश कुमार, चिराग पासवान एवं जीतनराम मांझी को मिलाकर एक बड़े सामाजिक वर्ग को साधा। आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व में तेदेपा-जनसेना-भाजपा गठबंधन द्वारा मुद्दों पर चुनाव लड़ ‘कामा, कापू और रेड्डी’ समाज को मिलाया और सफलता हासिल की।

इन दोनों राज्यों की ओर से विशेष दर्जे की मांग की अटकलें लगाई जा रही हैं, लेकिन लगता नहीं कि विशेष राज्य का दर्जा और विकास हेतु वित्तीय सहयोग आदि मांगों पर तेदेपा, जदयू तथा भाजपा के संबंधों में कोई समस्या आएगी। इसमें मोदी का सकारात्मक दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है। वह स्वयं मुख्यमंत्री रह चुके हैं तो राज्यों के प्रति संवेदनशील हैं। नीतीश और नायडू की विकासोन्मुख मांगें मोदी के ‘विकसित भारत’ की परिकल्पना का ही अभिन्न अंग हैं। इसलिए उनके समायोजन में मोदी को समस्या नहीं आनी चाहिए।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ सामंजस्य मोदी की तीसरी चुनौती होगी। आज भाजपा-संघ संबंधों में कुछ तो असामान्य है। अन्यथा चुनाव अभियान के दौरान पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा को क्यों कहना पड़ता कि अब भाजपा को आरएसएस की जरूरत नहीं? इससे पार्टी समर्थकों में गलत संदेश गया। आम धारणा यही है कि संघ के कार्यकर्ता निष्ठापूर्वक भाजपा के पक्ष में जनमत तैयार करते हैं और मतदाताओं को मतदान केंद्रों तक ले जाते हैं।

ऐसा लगा कि नड्डा के बयान से उत्तर प्रदेश, बंगाल और महाराष्ट्र आदि राज्यों में संघ कार्यकर्ता उदासीन हो गए, जिसका खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा। संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी इंद्रेश कुमार ने भी सरकार के प्रति अपनी नाराजगी प्रकट की थी, लेकिन अगले ही दिन अपने बयान को कुछ बदल दिया। भाजपा के लिए केंद्र सरकार में अपनी राजनीतिक अहमियत बनाए रखने के लिए आगामी विधानसभा चुनावों में जीत हासिल करना और महत्वपूर्ण हो गया है, जो संघ के सक्रिय सहयोग के अभाव में कठिन होगा। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी द्वारा संघ और भाजपा के मध्य आई दरार को भरना काफी चुनौतीपूर्ण होगा।

मोदी की चौथी चुनौती स्वयं भाजपा ही है। समावेशी राजनीति के कारण मोदी ने समाज के सभी वर्गों और जातियों को भाजपा की ओर आकृष्ट किया है। इससे वे लोग जो अस्मिता की राजनीति करते थे, भाजपा में प्रवेश कर गए। इससे न केवल पुराने भाजपाई नाराज हैं, बल्कि पार्टी में गुटबाजी को भी बल मिला है। भाजपा में नव-आगंतुकों का पार्टी की विचारधारा से जुड़ाव हो भी सकता है और नहीं भी, लेकिन पुराने भाजपाई यही समझते हैं कि वे अपने निहित स्वार्थों के लिए पार्टी से जुड़े हैं। अब विचारधारा से इतर अन्य आधारों पर भी लोग भाजपा से जुड़ रहे हैं।

स्वार्थ-सिद्धि न होने पर वे कभी भी उससे किनारा कर सकते हैं। ऐसे में पीएम मोदी अपने उत्तरदायित्वों के निर्वहन में इतने तल्लीन नहीं हो सकते कि अपने सांसदों और विधायकों की अकर्मण्यता, जनता से विमुखता और भ्रष्टाचार में लिप्तता का संज्ञान ही न लें। मोदी सरकार की पांचवीं चुनौती संघीय स्तर पर गैर-भाजपा, गैर-राजग शासित राज्यों से जुड़ी है। जिस आक्रामक-संघवाद की शुरुआत बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने की है, उसकी बेल पंजाब, तेलंगाना, केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक आदि राज्यों तक फैल गई है। केंद्र सरकार को आंतरिक और बाह्य कई समस्याओं से जूझना पड़ता है।

विकास के लक्ष्यों को पाना होता है। कानून एवं व्यवस्था, आतंकवाद और सुरक्षा जैसी संवेदनशील समस्याओं से निपटना पड़ता है। प्राकृतिक आपदाओं की स्थितियों में राहत एवं बचाव अभियान चलाने पड़ते हैं। साइबर अपराधों की काट तलाशनी पड़ती है। अतः मोदी सरकार को सभी राज्यों से तालमेल बैठा कर ही सरकार चलानी होगी। व्यापक स्वरूप वाली ये चुनौतियां गंभीर अवश्य हैं, लेकिन अपने अनुभव, प्रशासनिक क्षमता और निर्णयन दक्षता से प्रधानमंत्री मोदी इन सभी चुनौतियों से निपटने में सक्षम हैं। नि:संदेह वह राष्ट्र को विकसित बनाने के अपने मिशन को आगे बढ़ाने में सफल होंगे।

(लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)