अमित शाह। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में 25 जून, 1975 की तारीख एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है। इस दिन कांग्रेस सरकार द्वारा आपातकाल की घोषणा कर लोकतंत्र को बंधक बनाने का अपराध किया गया था। इस घटना को हमें इसलिए सदैव स्मरण रखना चाहिए ताकि फिर इसकी पुनरावृत्ति न हो तथा लोकतंत्र सदैव मजबूत बना रहे।

1951-52 में देश के पहले आम चुनाव हुए और शासन की बागडोर चुनी हुई सरकार के हाथों में आई। स्वतंत्रता आंदोलन की कोख से निकली कांग्रेस को स्वाभाविक तौर पर शासन व्यवस्था के नेतृत्व का पहला अवसर मिला। यह वह समय था, जब विपक्ष की स्थिति लगभग शून्य थी।

विपक्ष-शून्य शासन के इस दौर में जवाहरलाल नेहरू सरकार ने संविधान और लोकतंत्र को धता बताते हुए अनेक मनमानियां कीं। 1951-52 में नेहरू सरकार द्वारा पहला संविधान संशोधन रखा गया, जिसका उद्देश्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करना था।

पहले आम चुनाव के बाद के दो दशकों में विपक्ष की स्थिति काफी मजबूत हो गई थी। विपक्ष-शून्य शासन चलाने वाली कांग्रेस इसे स्वीकार नहीं कर पा रही थी। विपक्ष की बढ़ती शक्ति से बौखलाई कांग्रेस को जब अपनी सत्ता खिसकती हुई महसूस हुई, तो 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगा दिया।

आपातकाल की जड़ की तरफ देखें तो इसके पीछे लोकतंत्र विरोधी सोच नजर आता है। कुशासन और भ्रष्टाचार से उपजा जनांदोलन इंदिरा गांधी के लिए परेशानी का सबब था। जिन घटनाक्रमों से हाई कोर्ट के आदेश ने इंदिरा गांधी के चुनाव को रद किया, उसे वह स्वीकार नहीं कर पाईं।

आपातकाल की जड़ें तानाशाही की मानसिकता में होती हैं। इसे विडंबना ही कहेंगे कि कांग्रेस ने 28 साल लगातार शासन करने के बाद अपनी डगमगाती सत्ता बचाने के लिए संविधान की मर्यादा को तार-तार करते हुए आपातकाल लगा दिया। 25 जून 1975 की मध्यरात्रि के बाद पूरे देश को जेल में तब्दील कर दिया गया।

जनता के मौलिक अधिकार खत्म कर दिए गए। लोकतंत्र की प्रहरी संसद को भंग कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की नियुक्ति असंवैधानिक तरीके से करके न्यायपालिका को बंदी बना लिया गया, ताकि इंदिरा गांधी की संसद सदस्यता न खत्म हो।

नौकरशाही को इंदिरा के व्यक्तिगत तंत्र के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया पर बैन लगा दिया गया। मीडिया संस्थानों की बिजली काट दी गई और पत्रकारों को गिरफ्तार कर लिया गया।

कांग्रेस के गुर्गे खबरों को स्कैन करके प्रकाशित होने देते थे। आपातकाल लगते ही लोकनायक जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और जार्ज फर्नांडिस समेत विपक्ष के सभी बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया और उन्हें यातनाएं दी गईं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समेत अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों पर पाबंदी लगा दी गई। देश यह देखकर अचंभित रह गया कि कैसे इंदिरा गांधी ने निजी महत्वाकांक्षा के आगे संविधान को तिलांजलि दे दी। संविधान का आत्मा कही जाने वाली मूल प्रस्तावना में परिवर्तन का भीषण अपराध भी आपातकाल के काले दौर में कांग्रेस द्वारा किया गया।

1977 के चुनाव में जनता ने आपातकाल की यातनाओं का जवाब देते हुए कांग्रेस को हार का मुंह दिखाया। इंदिरा गांधी भी चुनाव हार गईं। इसके बावजूद कांग्रेस ने लोकतंत्र को चुनौती देना बंद नहीं किया। आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का राग अलापने वाली कांग्रेस को राजीव गांधी सरकार द्वारा लाया गया ‘मानहानि विधेयक’ नहीं भूलना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने की मंशा से लाए गए इस बिल को उन्हें वापस लेना पड़ा था।

आज जब कांग्रेस संविधान बचाने का नारा लगा रही है, तब उसे अपने इतिहास को देखना चाहिए। संविधान को नष्ट करने का कुत्सित प्रयास यदि किसी ने किया है तो वह कांग्रेस ने। एक खास परिवार को सत्ता में बनाए रखने के लिए कांग्रेस ने कई बार संविधान की भावना को कुचला है।

संविधान बचाने की बात करने वाले राहुल गांधी भूल जाते हैं कि उनकी दादी ने आपातकाल लगाया और पिता राजीव गांधी ने 23 जुलाई, 1985 को इस पर गर्व करते हुए लोकसभा में कहा था, ‘इसमें कुछ भी गलत नहीं।’

उन्होंने यह भी कहा था, ‘अगर कोई प्रधानमंत्री यह महसूस करता है कि आपातकाल आवश्यक है और वह आपातकाल लागू नहीं करता तो वह प्रधानमंत्री बनने लायक नहीं है।’ स्पष्ट है कांग्रेस ने केवल आपातकाल लगाया ही नहीं, बल्कि उस पर गर्व भी किया।

तानाशाही पर गर्व यही दर्शाता है कि कांग्रेस को परिवार और सत्ता के अलावा और कुछ प्रिय नहीं है। कांग्रेस को लोकतंत्र और संविधान पर बोलने का कोई नैतिक अधिकार ही नहीं है। आज जब कांग्रेस संविधान की दुहाई देती है और उसके पीछे समाजवादी लोग तख्ती लहराते हैं, तो यही स्पष्ट होता है कि उनमें संविधान के प्रति कोई निष्ठा नहीं, सिर्फ सत्ता पाने की आतुरता है।

ये लोग भूल जाते हैं कि समाजवादी परंपरा के ध्वजवाहक जयप्रकाश नारायण, राजनारायण, जार्ज फर्नांडिस, चौधरी चरण सिंह, मुलायम सिंह आदि को कांग्रेस ने जेल में ठूंसा था। बेहतर होता कि समाजवादी मित्र आपातकाल की बरसी पर अपने पूर्वजों का सम्मान करते और सियासी लोभ में कांग्रेस के पिछलग्गू न बनते।

सत्ता के लोभ और अहंकार में कांग्रेस ने अनेक ऐसे कार्य किए, जो लोकतंत्र की न्यूनतम मर्यादा को खंडित करने वाले हैं। सत्ता के लोभ में अनुच्छेद-356 का इस्तेमाल करके लोकतांत्रिक तरीके से चुनी दर्जनों सरकारों को अकारण बर्खास्त करना इनमें से एक है।

जिस पार्टी के मूल में ही लोकतंत्र रचा-बसा न हो, वह देश को लोकतंत्र कैसे दे सकती है? कांग्रेस की संरचना ही वंशवाद की बुनियाद पर टिकी है। यही वंशवाद कांग्रेस की तानाशाही व्यवस्था के मूल में है, जिसकी अनेक उपजों में एक आपातकाल था।

देश में सशक्त लोकतंत्र को नेतृत्व वही पार्टी दे सकती है, जिसकी आंतरिक बनावट एवं कार्यशैली लोकतंत्र की बुनियाद पर आधारित हो। इन मानकों पर भाजपा शत-प्रतिशत खरी उतरती है।

लोकतंत्र का अर्थ चुनाव और राजनीतिक व्यवस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका वृहद स्वरूप है, जिसमें सर्वसमावेशी विकास, सबको सुरक्षा, समान अवसर, समान अधिकार निहित हैं। लोकतंत्र की इसी भावना को मोदी सरकार पिछले 10 वर्षों से विभिन्न नीतियों एवं योजनाओं के माध्यम से चरितार्थ कर रही है।

(लेखक केंद्रीय गृहमंत्री हैं)