संजय गुप्त: कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद अमेरिका के दौरे पर गए राहुल गांधी आत्मविश्वास से भरे तो नजर आए, लेकिन वहां उन्होंने विभिन्न मंचों पर जो कुछ कहा, उससे ऐसा नहीं लगता कि वह कुछ सीख रहे हैं अथवा राजनीतिक रूप से परिपक्व हो रहे हैं। उन्होंने अमेरिका यात्रा के दौरान वैसे ही तेवर दिखाए, जैसे कुछ समय पहले लंदन यात्रा के समय दिखाए थे। लंदन में उनके द्वारा जो कुछ कहा गया था, उसका भारी विरोध हुआ था, लेकिन लगता है कि उन्होंने कोई सबक सीखने से इन्कार किया।

लंदन की तरह अमेरिका में भी उन्होंने यही साबित करने की कोशिश की कि मोदी के शासनकाल में भारत तरक्की नहीं कर रहा है और प्रधानमंत्री अपनी रीति-नीति से देश को पीछे ले जा रहे हैं। उन्होंने यह कहकर मोदी का मजाक भी उड़ाया कि यदि वह ईश्वर से मिलें तो उन्हें भी समझाने लगें कि ब्रह्मांड कैसे काम करता है। उनकी मानें तो मोदी रियर व्यू मिरर देखकर कार चला रहे हैं यानी देश को आगे ले जाने के बजाय पीछे ले जा रहे हैं और भविष्य की ओर देखने के स्थान पर अतीत की ओर देख रहे हैं। उन्हें संसद के नए भवन में भारतीयता और भारतीय संस्कृति को महत्व दिया जाना भी रास नहीं आया। उन्होंने सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक सेंगोल की संसद में स्थापना का भी मजाक उड़ाया। कुल मिलाकर राहुल गांधी ने अपने बयानो से एक बार फिर सिद्ध किया कि उनका मोदी विरोध न केवल अंध विरोध में बदल गया है, बल्कि वे मोदी सरकार का विरोध करते-करते देश विरोध की हद तक चले जाते हैं।

एक ऐसे समय जब मोदी सरकार अपने नौ वर्ष के कार्यकाल की उपलब्धियां बता रही थी, तब राहुल गांधी अमेरिका में यह सिद्ध करने की हर संभव कोशिश कर रहे थे कि मोदी के शासन में भारत में कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है। यह और कुछ नहीं, उनके नकारात्मक रवैये की अति ही है। निःसंदेह कर्नाटक की जीत ने कांग्रेस का मनोबल बढ़ाने का काम किया है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस को राहुल गांधी की वजह से यह जीत हासिल हुई है। भले ही कांग्रेसजन इस जीत का श्रेय राहुल गांधी को दें, लेकिन सच यही है कि यह पार्टी के स्थानीय नेताओं की मेहनत का नतीजा है। इस सबके बाद भी इस जीत से राहुल गांधी का उत्साहित होना बनता है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वह जो कुछ कह रहे हैं, वह सही है।

अमेरिका में उन्होंने दावा किया कि वह नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोल रहे हैं, लेकिन वास्तव में वह ठीक इसके उलट काम कर रहे हैं। यह उनके इस कथन से साबित हुआ कि भारत में मुसलमानों समेत सभी अल्पसंख्यक और यहां तक कि दलित-आदिवासी भी निशाने पर हैं। राहुल गांधी ने इसके पहले लंदन में भी कहा था कि मोदी के भारत में अल्पसंख्यकों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार हो रहा है। उनके ऐसे वक्तव्य उन भारत विरोधी ताकतों का मनोबल बढ़ाते हैं, जो एक सुनियोजित अभियान के तहत यह दुष्प्रचार करने में लगी हुई हैं कि भारत में अल्पसंख्यकों और विशेष रूप से मुसलमानों की मुसीबत बढ़ गई है। ऐसा दुष्प्रचार करने वालों में पाकिस्तान भी है और अलकायदा जैसे आतंकी संगठन भी। कुछ खालिस्तानी भी ऐसा ही दुष्प्रचार सिखों को लेकर करने में लगे हुए हैं। ऐसे ही कुछ खालिस्तानियों ने अमेरिका में राहुल के समक्ष नारेबाजी भी की।

भारतीय हितों को चोट पहुंचाने वाले राहुल गांधी के बयान नए नहीं हैं। इसके पहले वे कश्मीर को लेकर भी देश को नुकसान पहुंचाने वाले बयान दे चुके हैं। उनकी सेहत पर इससे कोई असर नहीं पड़ा कि कश्मीर पर उनके बेजा बयानों को पाकिस्तान और चीन ने अपनी ढाल बनाया। मुसलमानों को लेकर राहुल ने अमेरिका में जो कुछ कहा, उससे इसकी ही पुष्टि होती है कि कांग्रेस उनके मन में भय का भूत खड़ाकर उनके वोट पाने की अपनी पुरानी नीति पर लौट आई है। इसका पता उनके इस बयान से भी चलता है कि इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग पूरी तरह सेक्युलर है। साफ है कि राहुल गांधी ने इस तथ्य की अनदेखी करने में ही अपनी भलाई समझी कि इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के सांप्रदायिक चरित्र के कारण खुद जवाहर लाल नेहरू ने उसके गठन का विरोध किया था और उसकी राष्ट्रनिष्ठा पर सवाल उठाए थे। ध्यान रहे कि राहुल वायनाड से लोकसभा चुनाव इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के भरोसे ही जीते थे।

राहुल गांधी ने अमेरिका में ऐसी विचित्र बातें भी की कि गांधी, नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल, आंबेडकर आदि सभी एनआरआइ थे और भारत का स्वतंत्रता संग्राम दक्षिण अफ्रीका से शुरू हुआ था। उन्होंने यह भी कहा कि गुरुनानक देव जी थाईलैंड भी गए थे। हालांकि वह अपने ऐसे बयानो के कारण उपहास और विवाद का पात्र बने, लेकिन शायद उन्हें लगता है कि किसी भी बहाने में चर्चा में रहना चाहिए। यदि यही उनका उद्देश्य है तो इसमें वह सफल हैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वह वैचारिक रूप से न तो कांग्रेस को दिशा दे पा रहे हैं और न ही देश की जनता को अपनी ओर आकर्षित कर पा रहे हैं। हालांकि राहुल के अमेरिका में दिए गए बयानों पर भाजपा के कई नेताओं ने उन पर हमला बोला और यह कहा कि वह विदेश में भारत को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन इसके कहीं कोई संकेत नहीं कि वह अपना रवैया बदलेंगे।

इसके आसार इसलिए नहीं, क्योंकि कर्नाटक के नतीजों के बाद वह खुद को प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती देने में सक्षम मानने लगे हैं। इसी कारण वह विपक्षी एकता की पहल में भागीदार बन रहे हैं। विपक्ष की एकता अभी दूर की कौड़ी है, क्योंकि विपक्षी दल देश के समक्ष न तो कोई वैकल्पिक एजेंडा पेश कर पा रहे हैं और न ही कोई विमर्श खड़ा कर पा रहे हैं। इस मामले में सबसे अधिक निराश करने का काम खुद राहुल गांधी कर रहे हैं। वह जितना आत्मविश्वास से भरे हैं, उससे कहीं ज्यादा नकारात्मकता से। इसी नकारत्मकता के चलते वह सरकार और देश में अंतर तक नहीं कर पा रहे हैं।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]