शिवकांत शर्मा : प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री राबर्ट डाल ने लोकेच्छा के प्रति सरकार के निरंतर उत्तरदायी रहने यानी लोगों की इच्छाओं के अनुसार काम करने की विशेषता को लोकतंत्र की आत्मा कहा था। लोगों का प्रतिनिधित्व करते हुए सरकारों को जनता के प्रति उत्तरदायी रखने और जनहित के मार्ग पर चलाने का काम राजनीतिक दलों का है। आम राय को सार्वजनिक नीतियों में परिवर्तित कराना ही इन दलों का काम है, लेकिन वास्तविकता में ये पार्टियां क्या करती हैं, यह उनकी संरचना और कार्यप्रणाली पर निर्भर करता है। यदि पार्टियों के भीतर बराबरी और लोकतंत्र नहीं है तो वे लोकतांत्रिक व्यवस्था का भाग होते हुए भी लोगों का प्रतिनिधित्व करने के बजाय कुछ कुनबों और उनके हितों का प्रतिनिधित्व करने लगती हैं।

बराबरी और लोकतांत्रिक जनप्रतिनिधित्व के बजाय कुनबाशाही की संरचना पर बनी और तानाशाही अंदाज में चलने वाली पार्टियां किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था का क्या हाल कर सकती हैं, श्रीलंका का संकट इसका जीता-जागता उदाहरण है। चूंकि चीन ने राजपक्षे परिवार को 2009 के तमिल नरसंहार के आरोपों से बचाया था, इसीलिए सारे निर्माण ठेके जापान और भारत के बजाय उसे दिए गए। श्रीलंका की दो सबसे पुरानी पार्टियों समेत 17 पार्टियों के गठबंधन से बने सत्ताधारी मोर्चे में राजपक्षे परिवार के पास राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री सहित लगभग 40 सरकारी विभाग थे। गठबंधन में राजपक्षे परिवार की पूरी तानाशाही थी, इसलिए चीनी कर्ज लेकर बन रही परियोजनाओं से लेकर विदेशी मुद्रा की बचत के लिए खेती को जोखिम में डालने और आर्थिक विकास तेज करने के लिए भारी टैक्स कटौती पर किसी ने कोई सवाल ही नहीं उठाया। राजपक्षे परिवार जानता था किसी भी निर्णय पर कोई सवाल उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा। कुनबाशाही में पार्टी और मंत्री परिषद हिसाब नहीं मांगतीं, इसीलिए सरकारों को मनमानी और लूट की आजादी मिल जाती है। लोगों को हवाई किले दिखाते हुए करों में कटौती, राहत और सब्सिडी देकर चुप करा दिया जाता है। राजपक्षे परिवार भी यही सब कर रहा था।

महंगाई और मंदी की मार तो ब्रिटेन भी झेल रहा है, लेकिन यहां पार्टियां लोगों का प्रतिनिधित्व करती हैं कुनबों का नहीं। यहां श्रीलंका जैसे आर्थिक कुप्रबंध और खुली लूट का तो प्रश्न ही नहीं उठता। कार्यवाहक प्रधानमंत्री बोरिस जानसन को मारग्रेट थैचर के बाद कंजरवेटिव पार्टी का सबसे लोकप्रिय नेता माना जाता है। पार्टी ने उनके नेतृत्व में 1987 के बाद की सबसे बड़ी जीत हासिल की, लेकिन उनके मनमौजी स्वभाव के कारण उन पर और उनके मंत्रियों पर कोविड नियमों का उल्लंघन करने के लिए जुर्माना लगा। उन पर यौन दुराचार के दोषी पाए गए मंत्री और सांसदों को निकालने में ढील बरतने और आर्थिक अनैतिकता के आरोप भी लगे। पार्टी सांसदों और मंत्रियों को सबसे बड़ी चिंता इस बात की थी कि प्रधानमंत्री आरोपों को गंभीरता से लेते नजर नहीं आते। इस वजह से उनकी विश्वसनीयता गिर रही थी। उसका असर स्थानीय चुनावों और उपचुनावों में दिख रहा था।

लोगों को महंगाई से राहत देने और अर्थव्यवस्था को मंदी से उबारने के समाधान पर भी भारतीय मूल के वित्तमंत्री ऋषि सुनक और प्रधानमंत्री जानसन के बीच गहरे मतभेद थे। प्रधानमंत्री महंगाई से राहत देने और अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए करों में कटौती चाहते थे। वित्तमंत्री को भय था कि ऐसी कटौती महंगाई की आग में घी का काम करेगी और कर्ज का बोझ बढ़ता जाएगा। इसीलिए वह महंगाई पर काबू पाने और अर्थव्यवस्था में जान आने के बाद ऐसा करने के हिमायती थे। यह समझदारी और लोकलुभावन नीति के बीच की लड़ाई थी। प्रधानमंत्री के अड़ियल रुख को देख स्वास्थ्य मंत्री और वित्त मंत्री ने त्यागपत्र दिए। उनकी देखा-देखी छोटे-बड़े कई अन्य मंत्रियों ने भी यही किया। सत्तारूढ़ पार्टी के सांसदों की समिति ने भी कह दिया कि यदि प्रधानमंत्री ने इस्तीफा नहीं दिया तो समिति को उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाना पड़ेगा। मंत्रियों और पार्टी की इतनी बड़ी बगावत देखकर प्रधानमंत्री को अंतत: इस्तीफा देना पड़ा।

दक्षिण एशिया के राजनीतिक दलों में जिस तरह की कुनबाशाही है, उसे देखते हुए क्या आप मंत्री परिषद या सत्तारूढ़ पार्टी के सांसदों से उम्मीद कर सकते हैं कि वे जनहित या अर्थव्यवस्था के हित के सवाल पर अपने प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगने की हिम्मत जुटा सकेंगे? ब्रिटेन के दलीय लोकतंत्र की एक विशेषता और है। यहां पार्टी नेता के चुनाव में अंतिम दौर का प्रत्याशी कौन बनेगा, इसका निर्णय सांसद करते हैं। कंजरवेटिव पार्टी के नए नेता का चुनाव भी इसी प्रक्रिया से हो रहा है। सांसद जिन दो उम्मीदवारों को चुनेंगे, वे पूरे देश में फैले पार्टी सदस्यों से मिलने और प्रचार करने जाएंगे। पार्टी सदस्य डाक द्वारा मतदान करेंगे। उसमें जो जीतेगा, वही नया नेता और पार्टी के सत्ता में होने की वजह से ब्रिटेन का अगला प्रधानमंत्री होगा। सांसदों से मिल रहे समर्थन को देखते हुए ऋषि सुनक का अंतिम दो में चुना जाना तय है। देखना यह है कि पार्टी के करीब पौने दो लाख सदस्य उन्हें स्वीकार करते हैं या नहीं? ब्लाक से लेकर संसदीय क्षेत्रों तक पार्टी उम्मीदवारों का चयन हमेशा इसी तरह होता है। शीर्ष नेताओं या आलाकमान का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। असल में पार्टी आलाकमान का विचार ही तानाशाही पार्टियों से आया है।

दलीय लोकतंत्र में पार्टी कार्यकारिणी होती है। यही पार्टी की व्यवस्था चलाने, विपक्ष का सामना करने, नीतियां बनाने और पार्टी को लोगों से जोड़े रखने का काम करती है। इससे लोक और तंत्र के बीच का रिश्ता बना रहता है। इसीलिए इसे लोकतंत्र कहा जाता है। दक्षिण एशिया की पार्टियों में व्याप्त कुनबाशाही और अधिनायकवाद की वजह से लोक और तंत्र के बीच का यह रिश्ता टूट चुका है। इसीलिए इसे सही अर्थों में लोकतंत्र कहा ही नहीं जा सकता। यह 16वीं सदी की अंग्रेजी लार्डशाही जैसा है, जिसमें जमींदार बैरन और लार्ड दर्जनों सांसदों के मालिक होते थे। क्या यह अफसोस की बात नहीं कि दक्षिण एशिया के लोग ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली का परिष्कार कर अपनाने और उसमें जन प्रतिनिधित्व और उत्तरदायित्व को बढ़ाने के बजाय मध्ययुगीन लार्डशाही की तरफ बढ़ रहे हैं?

(लेखक बीबीसी हिंदी सेवा के पूर्व संपादक और वरिष्ठ स्तंभकार हैं)