कपिल सिब्बल। जब मैं स्कूल में था तो कभी यह जानने की जहमत ही नहीं उठाई कि मेरे सहपाठियों की जाति क्या थी? इसकी कभी चर्चा नहीं होती थी। उच्च शिक्षा के लिए सेंट स्टीफेंस कालेज गया तो वहां देश के कोने-कोने से आए छात्र भारत की व्यापक विविधिता के प्रतिनिधि थे। हम सभी एक परिवार की तरह रहते। हम सभी देशभक्ति के भाव से भरे युवा थे। विश्वविद्यालय से निकलने के उपरांत पेशेवर जीवन के शुरुआती दौर में जाति या नस्ल का मुद्दा कभी सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा ही नहीं रहा। एक युवा पेशेवर के रूप में मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मैं ऐसा भारत देखूंगा, जैसा आज बन गया है।

राजनीति में आने पर मुझे जाति की महत्ता समझ आई। राजनीति का मंडलीकरण उन पिछड़े वर्गों के लिए प्रेरक था, जो स्वयं को राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग-थलग मानते थे। मंडल ने पिछड़े समुदायों का सशक्तीकरण किया। मायावती का मुख्यमंत्री बनना भारतीय राजनीतिक परिदृश्य का एक ऐतिहासिक पड़ाव था।

सच्चर कमेटी ने अल्पसंख्यकों की दशा-दिशा दलितों से भी गई-गुजरी बताई, पर उनकी दशा सुधारने को बनाई गई सरकारी योजनाओं को तुष्टीकरण की कवायद के रूप में देखा जाने लगा। जबकि अन्य वर्गों के लिए नीतिगत लाभों पर वैधता की मुहर लगी। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों को संवैधानिक आधार पर सशक्त बनाया गया। आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों तक भी आरक्षण का विस्तार कर हिंदू बहुसंख्यकों की शिकायतों के समाधान का प्रयास हुआ।

समय के साथ राष्ट्रीय सार्वजनिक विमर्श का स्वरूप भी बदलता गया। भाजपा के निराशाजनक चुनाव प्रदर्शन के बीच अक्टूबर 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा एक राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक रही। इसने हिंदुओं में भावनात्मक उबाल भरा। उसने जाति और पंथ से परे जाकर हिंदुओं को समग्रता में संगठित एवं एकीकृत किया। अपने राजनीतिक विमर्श के केंद्र में धर्म के स्थान ने भाजपा के सितारे चमका दिए। यह प्रयोग तो सफल रहा, लेकिन इसने राजनीतिक तानेबाने को छिन्न-भिन्न कर दिया।

भाजपा ने अपने घोषणापत्र में राम मंदिर के निर्माण का वादा किया, लेकिन वह विवादित ढांचे को गिराने के बाद ही बनाया जा सकता था। छह दिसंबर, 1992 को ऐसा हो गया। भारत की राजनीति सच में बदल गई। फिर भी, तब तक हिंदुओं के वोटों की लामबंदी आंशिक रूप में हो पाई थी। विवादित ढांचे को गिराए जाने के बाद भी भाजपा को सत्ता नहीं मिल सकी। नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस ने अल्पमत सरकार चलाई। उसके बाद दो अल्पमत सरकारें सत्ता में रहीं। फिर 1998 में वाजपेयी सरकार बनी। भाजपा फिर 2004 में हार गई और उसके बाद 2014 तक संप्रग की सत्ता रही। वाजपेयी के दौर में भी लोकतांत्रिक भावनाएं पोषित होती रहीं।

2014 में अपनी ताजपोशी के साथ मोदी हिंदुओं की उस धारा के प्रतीक के रूप में उभरे, जो भगवान राम के आदर्शों से सराबोर नहीं। गुजरात में 2002 के दंगों ने मोदी को एक आक्रामक व्यक्तित्व के रूप में स्थापित किया। गुजरात में उनके शासनकाल में ही गोधरा में जलाए गए हिंदुओं जैसी राष्ट्रीय आपदा का प्रतिशोध लिया गया। नए उभार लेते भारत के कथित शिल्पकार मोदी उस नई किस्म की राजनीति के मूल में हैं, जो आडवाणी और वाजपेयी से भी अधिक खतरनाक है। संप्रति धर्म ही अकादमिक विमर्शों के केंद्र में है। हिंदुत्व की राजनीति में भारत की विविधता तार-तार हो रही है।

हिंदुत्व का उभार सभी जातियों और नस्लों पर हावी होना चाहता है। हमारे विविधता से भरे सामाजिक तानेबाने को सहेजने और कमजोर एवं वंचितों के संरक्षण की मुहिम चलाने वाली आवाजों को दबाने में भी इस सरकार का कोई सानी नहीं। इस दौर में जिस प्रकार का हिंदुत्व प्रस्तुत किया जा रहा है, वह हिंदू धर्म में वर्णित मूल्यों से कोसों दूर है। इस हिंदुत्व का उस रामराज्य से सरोकार नहीं, जिसका आधार ही नैतिकता, निष्पक्षता, सहिष्णुता और न्याय है। हिंदू धर्म को एक नई उपमा दी जा रही है। यह आक्रामक और असहिष्णु है। यह अलग सोच रखने वालों का मखौल उड़ाता है और दुश्मनों का एलान करने को तत्पर रहता है।

देशभक्ति के अर्थ बदल गए हैं। उग्र राष्ट्रवाद ने देशभक्ति की जगह ले ली है। मोदी राष्ट्र के पर्याय बन गए हैं और देशभक्ति का कोई भी कृत्य मोदी के समर्थन में होना चाहिए, अन्यथा आप देशद्रोही करार दे दिए जाएंगे। आप न तो विदेश नीति की आलोचना कर सकते हैं और न ही किसी हिस्से पर चीनी कब्जे के बारे में बात कर सकते हैं। हम सरकार से सवाल नहीं पूछ सकते। हम मोदी सरकार की योजनाओं की आलोचना नहीं कर सकते। अगर आपने ऐसा किया तो ‘भक्त’ आपके पीछे पड़ जाएंगे और आपके विषय में फर्जी खबरें प्रचारित कर आपको खलनायक चित्रित करेंगे। हम संसद में सवाल नहीं कर सकते और अगर कुछ पूछा तो जनप्रतिनिधियों को निलंबित किया जाता है।

देश का मध्यवर्ग इसलिए खामोश है, क्योंकि उसे अपनी सुख-सुविधाएं छिनने का खतरा है। बेचारे गरीबों के पास तो कोई विकल्प भी नहीं है। मुख्यधारा का मीडिया उन्हें साधे रखता है, जिसका एक ही एजेंडा है-मोदी के पक्ष में माहौल बनाना। यह दिखाया जाता है कि मोदी ही एकमात्र व्यक्ति हैं, जो देश और उसके दुश्मनों के बीच में खड़े हैं और जो उनके साथ नहीं, उनकी देशभक्ति संदिग्ध है। आज धर्म और राजनीति का इस प्रकार घालमेल हो गया है कि जो मोदी की मंशा वाले हिंदुत्व में विश्वास नहीं रखते, वे हिंदू ही नहीं हैं।

राम मंदिर हिंदू पुनरुत्थान का प्रतीक बन गया है। शंकराचार्यों की आपत्ति के बावजूद मोदी मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा करने जा रहे हैं। आगामी चुनाव करीब हैं और मोदी को कोई फिक्र नहीं। उनके अनुसार हिंदू लहर उनकी चुनावी नैया पार लगा देगी। जिन राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं, वहां डबल-इंजन सरकार के जुमले से लुभाया जाएगा। केंद्र और राज्यों में भाजपा राज करे, यही मोदी का स्वप्न है। इससे भारत एकनिष्ठ हो जाएगा, उसकी विविधता नष्ट हो जाएगी। ऐसा भारत कैसा होगा? यह तो समय ही बताएगा। इतिहास हमें सत्ता या शक्ति के क्षणभंगुर स्वरूप का सबक सिखाता है। यह स्थायी नहीं हो सकता।

(लेखक राज्यसभा सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)