डॉ. रामानंद। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नालंदा विश्वविद्यालय के नए परिसर का उद्घाटन किया। इस अवसर पर उन्होंने विश्वविद्यालय के गौरवशाली इतिहास को याद करते हुए कहा कि नालंदा केवल एक नाम नहीं, बल्कि भारत की पहचान और सम्मान का प्रतीक है। नालंदा की छवि एक ज्ञान केंद्र के रूप में भारत की पहचान को दर्शाती है, जिसकी चर्चा प्राचीन काल से होती आई है और आज भी जारी है। नालंदा विश्वविद्यालय का जीर्णोद्धार इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह वही विश्वविद्यालय है, जिसने भारत को ज्ञान के केंद्र के रूप में स्थापित किया था।

यह नालंदा विश्वविद्यालय का ही प्रभाव था जिसने ‘विश्वगुरु’ जैसी उपाधि को जन्म दिया, जिसे प्राप्त करने के लिए भारत आज भी लालायित है। आज जब भारत सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 आदि प्रयासों से देश की छवि को ज्ञान-विज्ञान और शोध के रूप में पुनः स्थापित करने का प्रयास कर रही है, ऐसे समय में नालंदा विश्वविद्यालय के खोए गौरव की वापसी का प्रयास एक ऐतिहासिक क्षण बन जाता है।

यह भारत के उस सांस्कृतिक जागरण की याद दिलाता है, जिसकी चर्चा विश्लेषक लंबे समय से कर रहे हैं। इसका जलना केवल एक विश्वविद्यालय का जलना नहीं था, बल्कि भारत को जोड़ने वाली और भारत के ज्ञान को स्थापित करने वाली डोर का बिखर जाना था। यह विश्वविद्यालय हमें यह भी सिखाता है कि पुस्तकों को जलाकर ज्ञान को नष्ट नहीं किया जा सकता, बल्कि ज्ञान लोगों की स्मृतियों में रहता है और किसी न किसी मोड़ पर उसका पुनरुत्थान संभव है। शर्त केवल इतनी है कि उस समाज के लोगों की जिजीविषा सशक्त होनी चाहिए, जो लगातार संघर्ष करते हुए स्मृतियों को सहेज सकें।

नालंदा विश्वविद्यालय 427 ईसा पूर्व में प्रारंभ हुआ था। यह उस समय विश्व का सबसे बड़ा शिक्षा केंद्र था। इसमें 10,000 से अधिक विद्यार्थी पढ़ते थे। आज जब इसकी पुनर्स्थापना हो रही है तो हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि नालंदा विश्वविद्यालय को उसके चरम पर उसके भवन और उसके संसाधनों ने नहीं, अपितु उसके शिक्षकों और विद्यार्थियों ने पहुंचाया था। तब राज्य का हस्तक्षेप इसके प्रशासन में न के बराबर था।

यह विडंबना ही कही जाएगी कि नालंदा जैसे विश्वविद्यालय वाले देश के विद्यार्थी आज शिक्षा के लिए अन्य देशों में जाने को मजबूर हैं। वह समाज जो एक समय ज्ञान आधारित कहलाता था, आज उसी देश के लोग सबसे अधिक संख्या में विश्व के अन्य देशों में पढ़ रहे हैं, बल्कि यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसका एक प्रमुख कारण भारत में गुणवत्ता वाले उच्च शिक्षण संस्थानों की पर्याप्त संख्या का अभाव है।

इसके कारण न केवल भारत की अमूल्य मानव संपदा का दोहन हो रहा है, बल्कि कुछ आंकड़ों के अनुसार वर्तमान में लगभग 50 अरब डालर दूसरे देशों में जा रहे हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि हम केवल भवनों की पुनर्स्थापना पर ही ध्यान न दें, बल्कि ज्ञान और शैक्षणिक परिवेश को भी फिर से स्थापित करें, ताकि हमारे विद्यार्थी भारतीय शिक्षण संस्थानों में पढ़ने के लिए प्रेरित हो सकें।

इस समय भारतीय शिक्षा परिदृश्य में चर्चा का प्रमुख विषय परीक्षाओं में होने वाली नकल और परीक्षाओं के परिणाम को प्रभावित करने वाले अन्य उपाय हैं। इसे रोकने के लिए भारत सरकार ने हाल ही में एक कानून भी पारित किया है, जिसका उद्देश्य परीक्षा के दौरान होने वाली गड़बड़ियों को रोकना है। पिछले कुछ दिनों से पेपर लीक होना और परीक्षा के दौरान नकल होना जैसी खबरें आम हो गई हैं, जिसके कुछ कारणों में से आनलाइन परीक्षा पर अत्यधिक निर्भरता और शैक्षणिक मानकों में गिरावट है।

ऑनलाइन परीक्षा ने जहां परीक्षा प्रक्रिया को आसान बनाया, वहीं नियामक संस्थानों की जिम्मेदारियों को कम कर दिया है। इसके कारण बिना यह समझे इस पर लगातार जोर दिया जाता रहा कि जमीन पर इसके प्रयोग को कैसे लिया जा रहा है। भारतीय समाज में शिक्षा को लेकर उत्साह तो है, लेकिन समाज शिक्षा की प्रक्रिया में ईमानदारी से भाग लेने के प्रति उतना उत्साही नहीं है जितनी उत्सुकता उसकी डिग्री और सर्टिफिकेट लेने में है।

इस रवैये के पीछे का एक प्रमुख कारण स्वयं शिक्षक हैं, जिन्होंने शिक्षा की पूरी प्रक्रिया को परीक्षा केंद्रित बना दिया है जबकि यह पाठ्यक्रम केंद्रित होनी चाहिए थी। देखा जाए तो आज हमारे शिक्षण संस्थानों का पूरा जोर परीक्षा लेने और सर्टिफिकेट देने पर हो गया है, जबकि अगर संस्थान पाठ्यक्रम निर्माण और उसके पालन पर ज्यादा ध्यान दें तो परीक्षा पर उनको बहुत अधिक कार्य नहीं करना होगा।

हालांकि हमारे संस्थान पिछले कुछ समय से ऐसा करने में लगातार असफल रहे हैं, जिसके कारण समाज में एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया है, जिसका एकमात्र उद्देश्य किसी भी कीमत पर परीक्षा उत्तीर्ण करना रह गया है। इसके लिए उसे चाहे अपराध ही क्यों न करना पड़े। आज जब देश में पेपर लीक की घटनाएं और परीक्षा को प्रभावित करने वाले कुत्सित प्रयासों की शिकायतें लगातार आ रही हैं, तब हमें एक समाज के रूप में अपनी जिम्मेदारियों को याद करना चाहिए।

चाहे वह नालंदा हो या आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, इनके निर्माण और स्थापना में वहां के समाजों का भी प्रमुख योगदान रहा है। उन्होंने नैतिक मानकों का पालन किया और यह सुनिश्चित किया कि वहां के छात्र और अध्यापक भी उनका सही तरीके से पालन करें। कुल मिलाकर नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरुत्थान भारतीय संस्कृति और शिक्षा क्षेत्र के लिए एक ऐतिहासिक घटना है, लेकिन यह तभी सफल माना जाएगा, जब नालंदा और अन्य विश्वविद्यालय ज्ञान के केंद्र के रूप में स्थापित होकर समाज को भी एक दिशा दे सकें।

(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च एंड गवर्नेंस से संबद्ध हैं)