राजीव सचान। लोकसभा चुनाव के नतीजे वाले दिन ही यह स्पष्ट हो गया था कि इस बार सत्तापक्ष-विपक्ष के बीच तनातनी पहले से अधिक दिखेगी। इसका कारण भाजपा का बहुमत से दूर रह जाना और कांग्रेस की सीटें लगभग दोगुनी हो जाना एवं उसके सहयोगी दलों का संख्याबल बढ़ जाना मात्र नहीं। इसका एक अन्य कारण भाजपा और कांग्रेस के बीच का बैर भाव है, जो 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद से लगातार बढ़ता रहा है।

क्या इस समय यह अपने चरम पर पहुंच गया है? ऐसा कुछ कहना इसलिए कठिन है, क्योंकि अभी तो नई लोकसभा की शुरुआत ही हो रही है। 2014 के बाद जैसे कांग्रेस ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार करने से इन्कार किया, वैसे ही भाजपा ने कांग्रेस को प्रमुख विपक्षी दल की तरह देखने से इन्कार ही नहीं किया, बल्कि कांग्रेस मुक्त भारत का नारा भी दिया।

2019 में जब नरेन्द्र मोदी दोबारा चुनकर सत्ता में आ गए तो कांग्रेस ने जहां ऐसा प्रकट किया कि जनता ने फिर से गलती कर दी है, वहीं भाजपा ने यह जताना शुरू कर दिया कि मोदी की लोकप्रियता के चलते कांग्रेस खत्म ही होने वाली है। इस कारण भाजपा और कांग्रेस के बीच पक्ष और विपक्ष वाले संबंध कभी पनप ही नहीं सके और अब तो इसके आसार और भी कम लग रहे हैं।

यद्यपि कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में केवल 99 सीटें मिली हैं, लेकिन वह ऐसे व्यवहार कर रही है, जैसे उसने बहुमत हासिल कर भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया है और फिर किसी कारण सत्ता से बाहर रहना पसंद किया है।

कांग्रेस के हिसाब से लोकसभा चुनाव में भाजपा की नैतिक और राजनीतिक हार हुई है, लेकिन उसके पास इस सवाल का जवाब नहीं कि यदि ऐसा कुछ है तो फिर नरेन्द्र मोदी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ कैसे ले ली? कांग्रेस और विशेष रूप से राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी के प्रति किस तरह विद्वेष से भरे हुए हैं, इसके प्रमाण उनकी ऐसी भाषा से पहले भी मिलते रहे हैं.. मोदी डरपोक है।.. आंख से आंख मिलाकर बात नहीं कर सकता।...

अभी हाल में राहुल गांधी इससे खासे संतुष्ट दिखे कि वाराणसी यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री के काफिले पर किसी ने चप्पल फेंक दी। इसे उन्होंने प्रधानमंत्री के घटते राजनीतिक कद के रूप में ही नहीं, बल्कि इस रूप में भी बयान किया कि लोगों में उनका डर कम होता जा रहा है। वह इस घटना को अपनी राजनीतिक जीत के रूप में मनाते दिखे। जब उनके इस बयान की आलोचना हुई तो उन्होंने कुछ घंटे बाद एक्स पर पोस्ट किया कि प्रेस कांफ्रेंस में यह महत्वपूर्ण बात कहनी रह गई थी कि मोदी और उनके काफिले पर चप्पल फेंका जाना बहुत ही निंदनीय और उनकी सुरक्षा में गंभीर चूक है।

16वीं और 17 वीं लोकसभा की तरह 18वीं लोकसभा में सत्तापक्ष-विपक्ष के बीच एक दूसरे को नीचा दिखाने का काम और तेजी से होगा, यह उस दिन भी स्पष्ट हुआ, जब मोदी प्रधानमंत्री पद की शपथ ले रहे थे। विपक्ष ने इस समारोह का बहिष्कार करना पसंद किया। मल्लिकार्जुन खरगे अवश्य इस समारोह में गए, लेकिन राज्यसभा में नेता विपक्ष के रूप में। मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने पर चीन और पाकिस्तान तक ने तो बधाई दे दी, लेकिन कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने इसकी जरूरत नहीं समझी।

पक्ष-विपक्ष के बीच का शत्रुभाव तब भी प्रकट हुआ, जब सत्तापक्ष ने नव निर्वाचित सांसदों को शपथ दिलाने के लिए लोकसभा के प्रोटेम स्पीकर के रूप में वरिष्ठ सांसद भर्तृहरि महताब की नियुक्ति की। कांग्रेस ने इस नियुक्ति पर यह कहकर विरोध जताया कि इस पद के लिए सबसे वरिष्ठ सांसद के. सुरेश की अनदेखी की गई। इस विरोध को निराधार नहीं कहा जा सकता, क्योंकि परंपरा यही है कि सबसे वरिष्ठ सांसद को प्रोटेम स्पीकर के तौर पर चुना जाता है।

भाजपा आसानी से ऐसा कर सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। हैरानी नहीं कि इसका कारण प्रोटेम स्पीकर के तौर पर विपक्षी सांसद पर भरोसा न करना रहा हो। प्रोटेम स्पीकर कोई महत्वपूर्ण पद नहीं। यह महज दो-तीन दिन उपयोगी साबित होने वाला एक अस्थायी पद है। इसके बाद भी कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने प्रोटेम स्पीकर के तौर पर भर्तृहरि महताब की नियुक्ति के विरोध में अन्य विपक्षी सांसदों को उनके पैनल में शामिल होने से मना कर दिया।

नव निर्वाचित सांसदों के शपथ ग्रहण के दौरान संसद में जो अमैत्रीपूर्ण माहौल दिखा, उसमें और अधिक वृद्धि ही होने के आसार हैं। इसका एक अन्य प्रमाण लोकसभा स्पीकर के चुनाव की नौबत आना है। यह नौबत इसीलिए आई, क्योंकि सत्तापक्ष डिप्टी स्पीकर का पद विपक्ष को देने को तैयार नहीं। सत्तापक्ष डिप्टी स्पीकर का पद विपक्ष को देकर उससे संबंध सुधार की पहल कर सकता था, लेकिन यदि वह ऐसा करता तो बहुत संभव है कि कांग्रेस यह प्रचारित करने लगती कि विपक्ष के संख्याबल से मोदी डर गए।

मोदी सरकार इस बार गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही है। इसके पहले भी गठबंधन सरकारें बन चुकी हैं और उन्होंने महत्वपूर्ण फैसले भी किए हैं-वह चाहे नरसिंह राव सरकार रही हो अथवा वाजपेयी सरकार। ये दोनों सरकारें कई बड़े फैसले ले सकीं तो इसीलिए, क्योंकि तब पक्ष-विपक्ष के बीच आज जैसा बैर भाव नहीं था। तब पक्ष-विपक्ष को दलगत राजनीति से ऊपर उठना आता था। आज इसकी कल्पना करना कठिन है कि दोनों पक्ष दलगत हितों से ऊपर उठ सकेंगे, क्योंकि दोनों में एक-दूसरे के प्रति भरोसा नहीं और इससे भी खराब बात यह है कि दोनों के बीच शत्रुता का भाव बढ़ता जा रहा है। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए हितकारी नहीं हो सकता।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)