नई दिल्ली, [अनंत विजय]। पिछले वर्ष गांधी जयंती के अवसर पर एकता कपूर और करण जौहर समेत कई फिल्मकारों ने एक वक्तव्य जारी किया था। उसमें ये कहा गया था कि स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के अवसर पर भारतीय संस्कृति, भारतीय मूल्यों और शौर्य के बारे में फिल्मों का निर्माण किया जाएगा। अभी हाल में कुछ फिल्में आई हैं जिनमें भारतीय सैनिकों के साथ-साथ आम जनता के साहस की कहानी भी कही गई है। अजय देवगन की फिल्म ‘भुज, द प्राइड ऑफ इंडिया’ में 1971 में भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान भुज एयरबेस पर तैनात स्कावड्रन लीडर विजय कार्णिक के अदम्य साहस की कहानी कहता है। 1971 में पाकिस्तानियों ने भुज हवाई अड्डे पर हमला कर वहां की हवाईपट्टी को तबाह कर दिया था। इस हमले को युद्ध के इतिहास में भारत का ‘पर्ल हार्बर मोमेंट’ कहा जाता है। 

दिवतीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान ने अमेरिका के हवाई के पर्ल हार्बर में नौसेना अड्डे पर उस वक्त हमला किया था जब इसकी कल्पना नहीं की गई थी। उस हमले में करीब 180 अमेरिकी युद्धक विमानों को तबाह कर दिया गया था। उसी तरह जब भारत, पूर्वी पाकिस्तान सीमा पर युद्ध लड़ रहा था और पश्चिमी भारत में किसी हमले की आशंका नहीं थी तब पाकिस्तानी वायुसेना ने भुज हवाई अड्डे को निशाना बनाया था। हमले में कई विमान और हवाई पट्टी को नुकसान पहुंचा था। स्कावड्रन लीडर विजय कार्णिक की सूझबूझ और स्थानीय गांववालों की मदद से टूटी हवाई पट्टी को तीन दिन में चालू कर लिया गया था। कार्णिक के अलावा स्थानीय महिला सुंदरबेन की सांगठनिक क्षमता, रणछोरदास पगी और रामकरण नायर के शौर्य को भी चित्रित किया गया है। 

इस फिल्म में एक और खूबसूरत बात ये है कि इसमें हमें हिंदी के श्रेष्ठ शब्दों को सुनने का अवसर भी मिलता है। संवाद बेहद अच्छे हैं और समाज को एक संदेश देते हैं। सुंदरबेन अपने बच्चे को बचाने के लिए तेंदुए को मार डालती है और उसके बाद हाथ में तलवार लेकर हुंकार करती है। ‘जय हिंद और जय जय गर्वी गुजरात’ के घोष के बाद वो कहती है कि ‘भगवान कृष्ण कहते हैं कि हिंसा पाप है लेकिन किसी की जान बचाने के लिए की गई हिंसा धर्म है।‘ यहां भी भगवान कृष्ण हैं और जब स्कावड्रन लीडर विजय कार्णिक भुज की टूटी हुई हवाईपट्टी के मरम्मत के लिए गांववालों से मदद मांगने जाते हैं तो सुंदरबेन एक बार फिर भगवान कृष्ण और शंकर को याद करती है। गांववालों के अंदर के भय को खत्म करने और उनमें देशभक्ति का जोश भरने के लिए कहती हैं, ‘सारे जग का पालनहारा है कृष्ण कन्हैया, एक बाल भी बांका नहीं होने देंगे। 

आज अगर हमने अपने देश की मदद नहीं की तो सब साथ में जाकर जहर पी लेना, भगवान शंकर जहर पीने नहीं आएंगे। सबका चीरहरण होगा और भगवान कृष्ण चीर देने नहीं आएंगे।‘ संवाद लंबा है लेकिन अर्थपूर्ण है। वो आगे कहती है कि ‘लेकिन अगर आज हमने पांडवों की तरह अत्याचारियों के खिलाफ लड़ने का संकल्प ले लिया तो भगवान कृष्ण खुद हमारे सारथी बनकर आएंगे। सुंदरबेन के किरदार में जब सोनाक्षी सिन्हा ये कहती हैं तो लोगों में जोश भर जाता है।‘

धार्मिक प्रतीकों और अपने पौराणिक चरित्रों को हवाले से कथानक को आगे बढ़ाने का कौशल संवाद लेखकों ने दिखाया है। हिंदी फिल्मों में ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है। अबतक ज्यादातर फिल्मों में पौराणिक चरित्रों को मिथकों की तरह चित्रित करके उपहास उड़ाया जाता रहा है। धार्मिक फिल्मों को अगर छोड़ दिया जाए तो अन्य फिल्मों में कई बार नायक भगवान को कोसते नजर आते हैं। नायकों को भगवान से इस बात से खिन्न दिखाया जाता रहा है कि उन्होंने न्याय नहीं किया। लेकिन ‘भुज द प्राइड ऑफ इंडिया’ में फिल्मकार ने उपहास की इस मानसिकता को तोड़ने का साहस दिखाया। 

धर्म और नीति की भारतीय परंपरा का उपयोग कथानक में किया। इस लिहाज से अगर इस फिल्म पर विचार करें तो इसको संवाद लेखन की शैली में एक बदलाव के तौर पर भी देखा जा सकता है। इतना ही नहीं जब सुंदरबेन के नेतृत्व में सभी गांववाले भुज की टूटी हवाईपट्टी को ठीक करने का निर्णय लेते हैं तो वहां भी ‘जय कन्हैया लाल की हाथी घोड़ा पालकी’ का घोष उनके अंदर जोश भर देता है। इस फिल्म में गानों के बोल भी हिन्दुस्तानी से मुक्त और हिंदी की शान बढ़ानेवाले हैं। एक गीत है जिसमें ईश्वर के साथ साथ नियंता और घट, विघ्नहरण, करुणावतार जैसे शब्दों का उपयोग किया गया है। इस गाने को सुनते हुए 1961 में आई फिल्म ‘भाभी की चूड़ियां’ फिल्म का गीत ‘ज्योति कलश छलके’ की प्रांजल और सरस हिंदी का स्मरण हो उठता है। उस गीत को पंडित नरेन्द्र शर्मा ने लिखा था। भुज के गीतों को मनोज मुंतशिर, देवशी और वायु ने लिखा है। 

आज जब हम अपनी स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो ऐसे में संवाद लेखन और गीतों को बोल में अपनी भाषा का गौरवगान आनंद से भरने वाला है। इसकी अनुगूंज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में लंबे समय तक सुनाई दे सकती है। यह हिंदी के उपहास की मानसिक दासता से मुक्ति का संकेत भी है। अब दूसरे अन्य फिल्मकारों को भी इस ओर ध्यान देना चाहिए। भाषा के अलावा धर्म को लेकर भी कोई ऐसी वैसी टिप्पणी नहीं की गई है जो पिछले दिनों ओटीटी पर आई वेबसीरीज में फैशन बन गई थी। यहां तो जब रणछोरदास पगी पाकिस्तानियों से लोहा लेने जाता हैं तो अपनी पगड़ी करणी माता के सामने रखकर शपथ लेते हैं कि जिस दिन लड़ाई जीतूंगा उस दिन पगड़ी पहनूंगा। 

ये दृश्य बहुत छोटा है लेकिन इसका संदेश बहुत बड़ा है। आजतक जब भी भारत में ये नारा गूंजता था कि जबतक सूरज चांद रहेगा तो इसके साथ व्यक्ति विशेष का नाम लगाकर कहा जाता था कि उनका नाम रहेगा। इस फिल्म में सुंदरबेन कहती हैं कि जब तक सूरज चंदा चमके, तब तक ये हिन्दुस्तान रहेगा। इसका भी संदेश दूर तक जा सकता है। इंटरनेट मीडिया पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक इस फिल्म के संवाद अभिषेक, रमन, रीतेश और पूजा ने लिखे हैं। 

दूसरी फिल्म ‘शेरशाह’ का मुगल बादशाह से कुछ लेना देना नहीं है बल्कि ये करगिल युद्ध के दौरान शहीद हुए कैप्टन विक्रम बत्रा की कहानी है। युद्ध के दौरान कैप्टन विक्रम बत्रा का कोडनेम ‘शेरशाह’ है। ये फिल्म विक्रम बत्रा के शौर्य की कहानी तो कहता ही है उनके प्रेम प्रसंग को भी उभारता है। इस फिल्म के संवाद लेखक बहुधा भटकते नजर आते हैं। आतंकवाद पर बात करते समय कश्मीर के लोगों का भरोसा जीतने की भी बात होती है और देशभक्ति की भी। पूर्व में बनी कई फिल्मों में कश्मीर के आतंकवाद और आतंकवादियों के चित्रण में संवाद लेखक दुविधा में दिखते हैं। ऐसा लगता है कि वो कुछ आतंकवादियों को भटका हुआ मानते हैं और उसी हिसाब से उसको ट्रीट करते हैं। जबकि संवाद में स्पष्टता होनी चाहिए। 

‘शेरशाह’ में सिद्धार्थ मल्होत्रा ने कैप्टन विक्रम बत्रा का किरदार निभाया है लेकिन बेहतर अभिनेता को इस रोल के लिए चुना जाता तो फिल्म अधिक प्रभाव छोड़ सकती थी। ये सुखद संकेत है कि हिंदी के फिल्मकारों ने आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर उन कम ज्ञात नायकों को भी सामने लाने का बीड़ा उठाया है। आगामी दिनों में अक्षय कुमार की फिल्म ‘बेलबॉटम’ रिलीज होने के लिए तैयार है। बालाकोट एयर स्ट्राइक पर भी फिल्मों की घोषणा हुई है। इसके अलावा फील्ड मार्शल सैम मॉनकशा और क्रांतिवीर उधम सिंह पर भी फिल्में बनने के संकेत हैं।