सृजन पाल सिंह : पिछले महीने मैं दुबई में स्कूली बच्चों से चर्चा कर रहा था। उनमें कई बच्चे भारतीय थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि, ‘ऐसा क्या है जो भारतीय अर्थव्यवस्था को विकसित बना सकता है?’ इसके जवाब में आप भी विचार करेंगे कि क्या यह हमारी भौगोलिक स्थिति है या हमारा उद्योग जगत, बुनियादी संरचना या फिर हमारी आबादी? ये सभी पहलू किसी न किसी प्रकार इस उत्तर के दृष्टिकोण से उपयोगी हैं, लेकिन मेरे हिसाब से भारत को विकसित बनाने में हमारी प्रभावशाली संस्कृति की अहम भूमिका होगी।

हमारी संस्कृति असल में एक ऐसी धरोहर है, जिसकी रचना किसी एक पीढ़ी ने नहीं की। यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को उत्तरदायित्व के रूप में मिली है। यह हमारे परिवारों, परंपराओं और धर्म में भीतर तक रची-बसी है। भारतीय सनातन परंपरा में प्रथम पूज्य के रूप में प्रतिष्ठित भगवान श्रीगणेश जी को ही ले लीजिए। जिस प्रकार भगवान गणेश ज्ञान के प्रतीक हैं और उनसे न केवल भाग्य एवं लाभ प्राप्त होता है, बल्कि हमारे पास जो कुछ है, उसमें संतोष करने की प्रेरणा भी मिलती है।

संवेदनशील अर्थव्यवस्था, वैभव का सदुपयोग ही खुशहाल जीवन और दीर्घकालिक आत्मनिर्भर समाज के आधार हैं। आज दुनिया में ऐसी ही संवेदनशील अर्थव्यवस्थाओं के निर्माण की चर्चा हो रही है, जहां समाज कल्याण एवं जीडीपी विकास दोनों का सह-अस्तित्व हो और नागरिकों की प्रसन्नता सर्वोपरि हो। भारतीय सभ्यता सदा से धन और दान दोनों को सर्वोच्च मानती है। देवर्षि नारद ने राजा युधिष्ठिर को राजकाज पर उत्तम सलाह दी। वह उन्हें एक अच्छे राजा के गुणों के बारे में बताते हैं। ये गुण हैं-वाक्पटुता, सहायता करने की तत्परता, शत्रुओं से निपटने की बुद्धिमत्ता, स्मृति, नैतिकता एवं राजनीति का ज्ञान। इन्हीं गुणों को हम समकालीन नेताओं में खोजते हैं।

आज अमेरिकी सरकार ठप होने के कगार पर है, क्योंकि वहां बड़े पैमाने पर लिए गए कर्ज की अदायगी पर राजनीतिक सहमति नहीं बन पा रही। यूरोपीय संस्कृति ऐसी रही है, जिसमें उन वस्तुओं पर भी पैसा बहाया गया, जिनकी उन्हें कभी जरूरत ही नहीं थी। चीन ने कारोबार और नीतियों का ऐसा रास्ता अपनाया, जिसमें कोई नैतिकता नहीं। रूस अपने शत्रु को आंकने में गलती कर गया और एक अंतहीन से युद्ध में उलझकर रह गया। दुनिया में मची उथल-पुथल के बीच ऐसा लगता है कि केवल भारत ही ऐसी प्रमुख शक्ति है, जिसने ऐसा रास्ता चुना जो कूटनीतिक समझ और नैतिकता से भरा है। साथ ही, उसने एक स्थिर अर्थव्यवस्था के वैश्विक ब्रांड के रूप में खुद को स्थापित किया है, जिसके साथ दुनिया व्यापार करना चाहती है। ये सब इसी कारण संभव हुआ, क्योंकि हम अपनी संस्कृति से जुड़े हैं। संसद के नए भवन के उद्घाटन में भी यही देखने को मिला जब प्रधानमंत्री मोदी सभी धर्मों के गुरुओं के साथ पहुंचे और सेंगोल को स्थापित कर स्पष्ट कर दिया कि हमारी संस्कृति हमारे लोकतंत्र की नींव है।

विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं का अस्तित्व लगभग 6,000 वर्ष पहले का है। बेबीलोन, मेसोपोटामिया, मिस्र और सिंधु घाटी सभ्यता प्राचीनतम ज्ञात सभ्यताओं में शामिल हैं। भारत की अवधारणा शायद उससे भी पहले की है। भारतीय सभ्यता और समाज का स्थान आरंभ से ही व्यापार, विज्ञान और दर्शन में विश्वगुरु का था। मानव इतिहास के 6000 वर्षों में से भारत 5700 वर्षों तक वैश्विक अर्थव्यवस्था और विज्ञान के क्षेत्र में गुरु रहा है। मानव सभ्यता के 95 प्रतिशत समय तक भारत दुनिया को खनिज, मसाले और धातुओं के साथ ही गणित एवं खगोलशास्त्र की अवधारणाएं देता रहा। वर्ष 1700 में वैश्विक जीडीपी में भारत की 27 प्रतिशत हिस्सेदारी थी। तब भारत के रुतबे का अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि अभी विश्व जीडीपी में अमेरिका का हिस्सा 15 प्रतिशत है। फिर, मध्य काल में औरंगजेब की विफल नीतियों ने देश की संरचना को बुनियादी रूप से कमजोर कर दिया, जिसका परिणाम अंग्रेजी राज के रूप में सामने आया। भारतीय समाज अगले 300 वर्षों तक अंधकार युग में डूब गया, जब दुनिया की श्रेष्ठ अर्थव्यवस्था से फिसलकर हम सबसे गरीब देशों के बीच पहुंच गए। 1947 में हमने गुलामी की बेड़ियों को तोड़ा और समृद्धि की राह पर नए सिरे से सवार हुए।

वैश्विक अर्थव्यवस्था में सिरमौर बने रहने के मूल में हमारी संस्कृति है, जो हमारी सभ्यता का अभिन्न अंग रही है। भारत की सभ्यता की अनेक शक्तियों में से एक यह है कि न केवल यह सतत है, बल्कि स्वयं को समय के अनुकूल भी बना लेती है। इस संस्कृति ने अपने लोगों की बुद्धिमत्ता और क्षमता पर विश्वास दिखाया, जिससे वे अपने गुणों और मूल्य प्रणाली को तय कर सकें। इसमें यह शामिल नहीं रहा कि शक्तिशाली लोग आदेश जारी कर सब कुछ तय करें कि क्या अच्छा और क्या बुरा है। खुद को परिस्थिति के अनुकूल बनाने की इसी क्षमता ने हमें निरंतर परिवर्तनशील विश्व में भी महत्वपूर्ण बनाए रखा है।

‘प्रथाओं’ और ‘नियमों’ पर चलने वाली दुनिया की तमाम सभ्यताओं के उलट भारतीय सभ्यता ‘अविरल’ है। यह चीजों को देखती है, अपनाती है और अच्छाई को चुनकर प्रगति करती है। हमारी वर्तमान मजबूती भी हमारे अतीत से जुड़ी है, जो हमेशा से प्रगतिशील और आकांक्षी रहा है। वर्तमान विश्व जब महिला अधिकारों की हिमायत करता है तब यह बताना आवश्यक है कि महिलाओं को भारत में सदैव पुरुषों के बराबर स्थान मिला है। इतिहास साक्षी है कि राजा जनक ने स्त्री शिक्षा को कितना बढ़ावा दिया। युद्ध कौशल में कैकेयी का कोई सानी नहीं था। मौर्य राजा युद्ध कला में निपुण स्त्रियों को रक्षक रखते थे। अमेरिका जैसे आधुनिक लोकतंत्र में जहां स्त्रियों को मताधिकार के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा, वहीं भारत में आरंभ से ही महिलाओं को मताधिकार प्राप्त हुआ।

मानव चिंतन के शीर्ष पर रहने वाला भारतीय समाज 300 वर्षों के अंतराल के बाद अपने ऐतिहासिक गौरव को फिर से पाने के पथ पर अग्रसर है। मध्यकाल में राह भटकने के बाद आज देश की युवा पीढ़ी एक ऐसे भारत में आगे बढ़ रही है, जो अवसर, संस्कृति और प्रगति का देश है।

(कलाम सेंटर के सीईओ लेखक पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के सलाहकार रहे हैं)