केसी त्यागी। संसद के दोनों सदनों से पारित महिला आरक्षण विधेयक राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु के हस्ताक्षर के बाद कानून का रूप ले चुका है। राजनीति में महिलाएं पुरुषों से किसी भी मायने में कम या पीछे नहीं, इस भावना को बल देने का काम सबसे पहले सरोजिनी नायडू ने किया था। उन्होंने 1931 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर कहा था कि महिला को मनोनीत करके किसी पद पर बैठाना एक तरह से उनका अपमान है। उन्होंने महिलाओं के चुनाव जीतकर आने की परंपरा शुरू करने का आग्रह किया था। संविधान सभा में इस विषय पर विस्तार से चर्चा हुई, लेकिन वह बेनतीजा रही। स्वतंत्र भारत में विभिन्न महिला संगठनों द्वारा समय-समय पर महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग उठती रही, क्योंकि संसद में लंबे समय तक महिलाओं की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ पाई।

महिला आरक्षण को लेकर पहला प्रयास सितंबर 1996 में देवेगौड़ा सरकार के दौरान हुआ, जब 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में महिला आरक्षण बिल पेश किया गया, लेकिन वह पारित नहीं हो सका। महिला आरक्षण बिल के पक्ष में माहौल तैयार करने में माकपा सांसद गीता मुखर्जी की महती भूमिका रही, पर समाजवादी पृष्ठभूमि के नेताओं की ‘आरक्षण के अंदर आरक्षण’ की मांग के कारण आम सहमति नहीं बन पाई।

इसके बाद गीता मुखर्जी ने 1997 के मानसून सत्र में महिला आरक्षण बिल पर बहस प्रारंभ कराने की कोशिश की, लेकिन पीठासीन अधिकारी नीतीश कुमार के प्रयास के बाद भी बात बनी नहीं। लंबे समय तक महिला आरक्षण बिल सभी सरकारों के दौरान एक बड़ा मुद्दा बना रहा। 8 मार्च 2010 को महिला आरक्षण बिल राज्यसभा के पटल पर रखा गया, लेकिन आरक्षण के अंदर आरक्षण के प्रश्न पर उसका विरोध हुआ। इस विरोध के बाद भी अगले दिन कांग्रेस, भाजपा, जद-यू और वाम दलों के समर्थन से वह बहुमत से पारित हो गया, लेकिन लोकसभा में उसे पास कराना संभव नहीं हो पाया।

अंततः यह बीते दिनों तब संभव हो पाया, जब उसे नारी शक्ति वंदन अधिनियम के नाम से प्रस्तुत किया गया। इसके कानून बन जाने के बाद 543 सदस्यों वाली लोकसभा में महिला सदस्यों की संख्या 82 से बढ़कर 181 हो जाएगी। चूंकि 2024 आम चुनाव का वर्ष है, इसलिए हर दल महिला आरक्षण का श्रेय ले रहा है। इसी के साथ कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन के अन्य दलों ने पिछड़े वर्गों की महिलाओं को भी आरक्षण का मुद्दा उठाकर राजनीतिक पारा बढ़ा दिया है। बिहार सरकार की ओर से जातीय आधार पर गणना के आंकड़े जारी कर दिए जाने से भी राजनीतिक हलचल बढ़ गई है और पिछड़ों के साथ अति पिछड़ों को आरक्षण फिर से राजनीति के केंद्र में आ गया है।

जब अगस्त 1990 में वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की थीं, तब देश में एक विभाजन रेखा सी खिंच गई थी, लेकिन आज राजनीतिक माहौल बदला हुआ है। जैसे ओवैसी की पार्टी को छोड़कर किसी दल ने महिला आरक्षण विधेयक का विरोध नहीं किया, वैसे ही करीब-करीब सारे दल जाति आधारित गणना का भी सीधा विरोध नहीं कर रहे हैं। चूंकि महिला आरक्षण में ओबीसी महिलाओं को स्थान देने की मांग हो रही है, इसलिए सरकार उस पर विचार कर सकती है। इसका संकेत गृहमंत्री अमित शाह ने यह कहकर दिया भी कि यदि कुछ अधूरा है तो उसे सुधार लिया जाएगा।

एक सवाल यह भी उठ रहा है कि जब संप्रग सरकार की ओर से लाए गए बिल में राज्यसभा एवं विधान परिषदों में महिलाओं को आरक्षण का प्रविधान था तो इस बार उसे बाहर क्यों रखा गया? महिला आरक्षण का क्रियान्वयन आगामी आम चुनावों में नहीं हो पाएगा, क्योंकि पहले जनगणना होगी, फिर परिसीमन। जनगणना एक लंबी प्रक्रिया होगी। इस प्रक्रिया के शुरू होने के पहले विपक्ष के साथ सत्तापक्ष के भी कुछ दल जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं। चुनावी वर्ष में इस मांग को अस्वीकार करना मुश्किल होगा।

जैसे महिला आरक्षण विधेयक राजनीतिक कटुता के इस दौर में आम सहमति से पास हो गया, उसी तरह जातिगत जनगणना पर भी आम राय बननी चाहिए। बिहार की जातीय गणना के आंकड़े सार्वजनिक होने के बाद सबकी निगाहें अब रोहिणी आयोग की रपट पर हैं। पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था तीन दशकों से लागू है, लेकिन इस वर्ग की 983 जातियां ऐसी हैं, जिन्हें आरक्षण का कोई लाभ नहीं मिल पाया है। वास्तव में, इसीलिए पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए कोटे की मांग अव्यावहारिक नहीं।

वर्ष 1978 में कर्पूरी ठाकुर ने बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में मुंगेरीलाल आयोग की अनुशंसा पर सामाजिक न्याय की दिशा में ऐतिहासिक काम किया था। इसके तहत अति पिछड़ों को 12 प्रतिशत, पिछड़े वर्ग को आठ प्रतिशत, सामान्य वर्ग के गरीबों और महिलाओं को तीन-तीन प्रतिशत आरक्षण का प्रविधान था। जनता पार्टी के एक बड़े वर्ग द्वारा इसका विरोध किए जाने पर कर्पूरी ठाकुर को इस्तीफा देना पड़ा।

बिहार में जातिवार गणना के आंकड़े जारी होने के बाद अब कर्पूरी ठाकुर का सपना पूरा हो सकता है। महिला आरक्षण का क्रियान्वयन भारतीय राजनीति में एक नए दौर की शुरुआत करेगा। पिछले कुछ समय से राजनीति में महिलाओं की भागीदारी तेजी से बढ़ रही है। बिहार में तो पंचायती राज संस्थाओं एवं नगर निकायों में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है। इसके अलावा राज्य सरकार की नौकरियों में भी 35 प्रतिशत महिला आरक्षण लागू है। यह समय की मांग है कि आरक्षण के लाभ से वंचित पिछड़े-अति पिछड़े वर्गों के सामाजिक उत्थान के उपायों पर सभी दल आम राय कायम करें।

(लेखक जद-यू के विशेष सलाहकार एवं मुख्य प्रवक्ता हैं)