बलबीर पुंज: संसद के नए भवन में स्थापित ‘सेंगोल’ के इतिहास को जहां कांग्रेस ने ‘वाट्सएप विश्वविद्यालय’ जनित बताकर ‘फर्जी’, तो राकांपा ने वैदिक मंत्रों के साथ राजदंड की स्थापना ‘देश को पीछे धकेलने वाला’ बताया। वामपंथियों ने सेंगोल को ‘मध्यकालीन सामंतवादी व्यवस्था’, तो सपा ने ‘ब्राह्मणवादी आधिपत्य’ का प्रतीक कह दिया। इस बौखलाहट के मुख्य दो कारण हैं। एक तो प्रधानमंत्री मोदी के प्रति विरोधी दलों की घृणा और दूसरा, सत्ता-हस्तांतरण हेतु ‘सेंगोल’ की महती भूमिका और उसका गौरवशाली इतिहास। ‘सेंगोल’ परंपरा समाज में मिथकों पर आधारित कई वैचारिक अधिष्ठानों को ध्वस्त करती है।

ब्रितानियों ने भारत में अपने राज को शाश्वत बनाने हेतु कई कमजोर कड़ियों पर काम करते हुए विभाजनकारी नैरेटिव स्थापित किए थे। इसी में फर्जी ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ के आधार पर ‘दक्षिण भारत बनाम उत्तर भारत’ और हिंदू समाज को कमजोर करने हेतु ‘ब्राह्मण बनाम गैर-ब्राह्मण’ का दूषित नैरेटिव भी शामिल था। स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक नेतृत्व को ब्रितानी कुटिलता से छुटकारा पा लेना चाहिए था, परंतु जिन लोगों के कंधों पर राष्ट्र के पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी थी, उनका एक बड़ा वर्ग दुर्भाग्य से उसी औपनिवेशिक शिक्षा पद्धति का उत्पाद था। तत्कालीन सरकारों की अनुकंपा से महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त वामपंथियों ने विषैले नैरेटिव को ‘सेक्युलरवाद’ के नाम पर और अधिक मजबूत बना दिया।

हिंदू समाज अपने मूल सर्वस्पर्शी और समरसपूर्ण अधिष्ठान को भूल अस्पृश्यता जैसी कुप्रथाओं का शिकार हो गया था। इसके परिमार्जन हेतु समाज के भीतर कई आंदोलन चलाए गए। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के अनुसार, छुआछूत के लिए ब्राह्मण जिम्मेदार नहीं थे, फिर भी इन सामाजिक कुरीतियों को बढ़ावा देने का आरोप ब्राह्मणों पर ही लगाया गया। ब्राह्मण विरोधी प्रपंच का लक्ष्य हिंदू समाज के मेरुदंड को ध्वस्त करना रहा। इसकी जड़ें ‘जेसुइट मिशनरी’ फ्रांसिस जेवियर के 16वीं शताब्दी में भारत आगमन में भी मिलती हैं। तब ब्राह्मण ही हिंदू समाज में चर्च प्रेरित मतांतरण अभियान में सबसे बड़े बाधक थे।

इसका प्रमाण जेवियर द्वारा 31 दिसंबर, 1543 को रोम के शासक को लिखे पत्र में मिलता है, जिसमें उसने लिखा था, ‘यदि ब्राह्मण विरोध नहीं करते, तो हम वहां सभी (हिंदुओं) को ईसा मसीह की शरण में ले आते।’ कालांतर में जेवियर मानसबंधुओं ने ब्रितानियों के साथ मिलकर अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु ब्राह्मणों का दानवीकरण प्रारंभ किया। इसके लिए उन्होंने कई हिंदू शास्त्रों-ग्रंथों की विकृत व्याख्या की। इसी चर्च-ब्रितानी दुरभिसंधि से कालांतर में ‘द्रविड़ आंदोलन’ चला, जिसने ब्राह्मण विरोधी उपक्रम को भारत-विरोधी और फिर विशुद्ध हिंदू-विरोधी बना दिया, परंतु ‘सेंगोल’ घटनाक्रम ने इस विमर्श को एकाएक ध्वस्त कर दिया।

‘सेंगोल’ का संबंध चोल साम्राज्य से है। चोल शासक अपने उत्तराधिकारी को ‘सेंगोल’ सौंपता था। यह सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक था। इसे संपन्न कराने का दायित्व शिव के परमभक्त गैर-ब्राह्मण अधीनमों (मठों) पर रहा। 14 अगस्त, 1947 में जिन थिरुवावदुथुरई अधीनम के आशीर्वाद से ब्रितानियों से भारत को सत्ता-हस्तांतरण का संस्कार कराया, वह मठ 16वीं शताब्दी से सेवारत है। गत 28 मई को नए संसद भवन में ‘सेंगोल’ की विधिवत स्थापना हेतु तमिलनाडु से जिन अधीनम संतों को आमंत्रित किया गया, वे सभी शिवभक्त गैर-ब्राह्मण हैं।

इस परंपरा से स्थापित होता है कि हिंदू संस्कृति में अन्य जातियों की भी बराबर की हिस्सेदारी है। स्पष्ट है कि भारत में जिनके राजनीतिक विमर्श में हिंदुओं को जातियों के नाम पर बांटना है, उनके लिए ‘सेंगोल’ की अमृतकाल यात्रा और 1947 में तत्कालीन दिल्ली शासन द्वारा अनुष्ठान के लिए तमिलनाडु में गैर-ब्राह्मण अधीनम से सामाजिक-सांस्कृतिक सत्यापन लेना उनके विषैले एजेंडे के अनुकूल नहीं। ऐसे में उनकी बौखलाहट स्वाभाविक है।

नए संसद भवन में स्थापित ‘सेंगोल’ को स्वतंत्र भारत ने भले ही भुला दिया हो, परंतु 1947 में तत्कालीन राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समाचार पत्रों, कई पुस्तकों और थिरुवावदुथुरई अधीनम के अभिलेखों में स्पष्ट रूप से अंकित है। जो समूह कुतर्क करते हुए भारत को ‘एक राष्ट्र’ मानने से इनकार करता है और इसके लिए ‘तमिल/कन्नड़ बनाम संस्कृत/हिंदी’ और ‘दक्षिण बनाम उत्तर भारत’ को आधार बनाता है, उसे भी ‘सेंगोल’ ने आईना दिखाया है।

नए संसद के प्रांगण और भीतर वैदिक मंत्रोच्चार के साथ ‘सेंगोल’ की स्थापना मजहबी नहीं, अपितु अनादिकाल से चली आ रही लोकतांत्रिक, बहुलतावादी और पंथनिरपेक्ष भारतीय संस्कृति का प्रतिरूप है। सेंगोल उसी भावना का विस्तार है, जिसके अंतर्गत संविधान की हस्तलिखित मूल प्रतियों में रामायण, महाभारत और वैदिक परंपरा के चित्र बनाए गए। ‘सेंगोल’ दर्शाता है कि शासक, विधि-नियम के अधीन है, तो जनसेवा उसका एकमात्र धर्म।

स्वतंत्र भारत में वैदिक अनुष्ठान से किसी भी राजकीय कार्यक्रम का संचालन ‘सेक्युलर मूल्यों का अपमान’ नहीं, अपितु समरस और मानवीय बहुलतावादी दर्शन की अभिव्यक्ति है। सदियों पहले जब पारसी, यहूदी, सीरियाई ईसाई अपने उद्गम स्थलों पर मजहबी प्रताड़ना का शिकार होकर भारत में शरण लेने आए, तब उनका न केवल स्थानीय हिंदू शासकों और समाज द्वारा स्वागत किया गया, बल्कि उन्हें उनकी पूजा-पद्धति का अनुसरण करने की सुविधा भी दी।

यही नहीं, भारत में पैगंबर साहब के जीवनकाल में ही अरब के बाहर विश्व की पहली मस्जिद ‘चेरामन जुमा मस्जिद’ का निर्माण भी 629 में हिंदू राजा चेरामन पेरुमल भास्कर रविवर्मा ने कोडुंगल्लूर (केरल) में कराया था। यह इसलिए संभव हुआ, क्योंकि समावेशी वैदिक दर्शन न तो ‘काफिर-कुफ्र’ और ‘हीथन/पेगन’ अवधारणा जैसा असहिष्णु है और न ही अनिश्वरवादी वामपंथ जैसा संकुचित।

वस्तुत:, संसद में ‘सेंगोल’ के अनुष्ठान का विरोध उसी मानसिकता का विस्तार है, जो प्रभु श्रीराम के व्यक्तित्व और उनके समय बने रामसेतु को काल्पनिक और भारत को सनातन राष्ट्र नहीं, अपितु राज्यों का समूह मात्र मानता है।

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)