ए. सूर्यप्रकाश। अंतत: उत्तराखंड के रूप में किसी राज्य ने समान नागरिक संहिता की दिशा में पहल की है। जैसा कि अनुमान था, मुस्लिम समुदाय के कुछ नेताओं ने उसका विरोध शुरू कर दिया है। उनकी मांग है कि उनके समुदाय को इससे बाहर रखा जाए। जमीयत-उलमा-ए-हिंद के मुखिया मौलाना अरशद मदनी ने कहा है कि मुसलमान शरीयत के खिलाफ कोई कानून स्वीकार नहीं कर सकते। असदुद्दीन ओवैसी ने इस कानून को संविधानप्रदत्त मूल अधिकारों का उल्लंघन बताया।

देहरादून में स्थानीय स्तर पर भी विरोध हुआ। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि क्या भारत को मुस्लिम समुदाय की इन आपत्तियों के आगे समर्पण कर देना चाहिए या पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र के व्यापक हितों को प्रोत्साहित करना चाहिए? उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता विवाह, तलाक और विरासत-उत्तराधिकार से जुड़े नागरिक कानूनों में समरूपता लाने की दिशा में एक बड़ा कदम है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार, किसी मुसलमान पुरुष की एक ही समय में चार पत्नियां हो सकती हैं। यह बहुविवाह की स्थिति अनुच्छेद-14 के अंतर्गत मिली ‘विधि के समक्ष समता’ के अधिकार का उल्लंघन करने के साथ ही महिलाओं की गरिमा पर आघात करती है। यह लैंगिक समानता के मूलभूत सिद्धांत का भी उल्लंघन है।

अफसोस की बात है कि मुस्लिम समाज के मौजूदा नेताओं का रवैया संविधान सभा के मुस्लिम सदस्यों से कतई अलग नहीं, जिन्होंने 76 साल पहले भी ऐसी संहिता का मुखर विरोध किया था। तब संविधान सभा बस इतनी व्यवस्था करके रह गई कि ‘राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने के लिए प्रयास करेगा।’ यह प्रविधान सलाह के स्वरूप में ही था, लेकिन संविधान सभा के मुस्लिम सदस्यों ने पुरजोर विरोध किया।

इस मुद्दे पर 23 नवंबर, 1948 को संविधान सभा में तीखी बहस हुई। आरंभ में इसे संविधान के अनुच्छेद-35 के रूप में जोड़ने का विचार था, लेकिन बहस के बाद यह अनुच्छेद-44 के रूप में अस्तित्व में आया। बहस की शुरुआत करते हुए मोहम्मद इस्माइल साहिब ने कहा था कि किसी भी समूह के पर्सनल ला में हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा ही संशोधन रखते हुए महबूब अली बेग साहिब बहादुर ने कहा कि पर्सनल कानूनों के पालन का अधिकार एक मूल अधिकार है। उनका दावा था कि यूरोपीय देशों ने भी मुस्लिमों को इस प्रकार की रियायत प्रदान की है।

बी. पोकर साहिब बहादुर ने संशोधनों का समर्थन करते हुए उक्त अनुच्छेद को ‘दमनकारी’ करार दिया था, जिसे कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह मजहबी परंपराओं में हस्तेक्षप करते हुए लोगों की चेतना को कुचलता है। इमाम हुसैन ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए थे। नजीरुद्दीन अहमद ने कहा कि समान नागरिक संहिता संवैधानिक गारंटियों का उल्लंघन करती है। इस प्रकार संविधान सभा के जो अन्य मुस्लिम सदस्य इस मुद्दे पर बोले, सभी ने इसका विरोध किया।

केएम मुंशी ने उनकी आपत्तियों का प्रतिकार किया। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद-25 धार्मिक परंपराओं और ‘सामाजिक कल्याण एवं सुधार’ के आलोक में राज्य को ‘सेक्युलर गतिविधि’ से संबंधित कानून बनाने की अनुमति प्रदान करता है। इसीलिए, अनुच्छेद-44 सरकार को नागरिक कानूनों में एकरूपता के प्रयास की गुंजाइश प्रदान करता है। संहिता को ‘दमनकारी’ कहने वाले सदस्यों के दावे पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि किसी भी मुस्लिम देश में अल्पसंख्यकों के निजी कानूनों को इतना अटल नहीं माना गया है।

तुर्की और मिस्र का उदाहरण गिनाते हुए उन्होंने कहा कि वहां किसी अल्पसंख्यक को ऐसे निजी कानूनों की अनुमति नहीं। यहां तक कि भारत में खोजा और मेमन जैसे वर्ग भी असंतुष्ट हैं कि उन पर शरीयत कानून थोपा हुआ है।’ उन्होंने पूछा कि तब अल्पसंख्यकों के अधिकारों का क्या? उन्होंने दो-टूक कहा कि हम धर्म-पंथ-मजहब को निजी कानूनों से अलग करना चाहते हैं।

उन्होंने हिंदुओं का उदाहरण देते हुए कहा कि वे मनु और याज्ञवल्क्य की परंपराओं से मुक्त हो रहे हैं तो मुसलमानों को भी ‘जीवन के प्रति अलगाववादी दृष्टिकोण’ त्याग देना चाहिए। अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर ने कहा कि हिंदू संहिता में प्राचीन हिंदू कानूनों को तिलांजलि दे दी गई है, क्योंकि उन्होंने समय के अनुरूप ढलना उचित समझा। उन्होंने यह भी कहा कि अगर मुस्लिम समान नागरिक संहिता का विरोध कर रहे हैं तो उन्होंने मुस्लिमों के लिए अलग इस्लामिक आपराधिक कानूनों की मांग क्यों नहीं की?

संविधान सभा में डा. बीआर आंबेडकर ने भी मुस्लिम सदस्यों की आपत्तियों को खारिज किया था। उन्होंने कहा था कि मुस्लिम सदस्यों के तर्क सुनकर उन्हें बड़ी हैरानी हुई, क्योंकि देश में मानवीय संबंधों के लगभग सभी पहलुओं को अपने दायरे में समेटने वाली कानूनी संहिताएं हैं। इनमें समान आपराधिक संहिता, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम और व्यावहारिक रूप से समान नागरिक संहिता भी शामिल है, जिसमें केवल विवाह और उत्तराधिकार के मुद्दे पर पेच फंसा है। उन्होंने सभा को स्मरण कराया कि 1939 तक नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रांत के मुसलमानों पर शरीयत कानून लागू नहीं होते थे।

विरासत इत्यादि के मामले वे हिंदू कानूनों का पालन करते रहे। इसी प्रकार 1937 में शरीयत कानून पारित होने से पहले तक उत्तरी प्रांत, मध्य प्रांत एवं बांबे प्रांत में भी मुस्लिम समुदाय विरासत से जुड़े हिंदू कानूनों का पालन करता रहा तो मालाबार के मुसलमान हिंदू मातृसत्तात्मक कानूनों का। उन्होंने कहा कि इन आधारों पर मुस्लिम सदस्यों की आपत्तियां खारिज की जाती हैं।

इस प्रकार देखें तो 1947 में मजहबी आधार पर देश विभाजन के बावजूद जो मुस्लिम भारत में रह गए थे वे भी केएम मुंशी जैसे विद्वान की दृष्टि में एक प्रकार के ‘अलगाववादी’ सोच से प्रेरित थे। उसी प्रकार का सोच वर्तमान में समान नागरिक संहिता का विरोध कर रहा है। समान नागरिक संहिता के विरोध में तमाम कुतर्क दिए जा रहे हैं। ऐसे में यदि भारत को उदार एवं लोकतांत्रिक समाज बने रहना है तो समान नागरिक संहिता के विरोध में मुस्लिम समाज की आपत्तियों को चुनौती देकर उनका प्रभावी प्रतिकार करना समय की आवश्यकता है। बहुसंख्यक समाज को भारत की पंथनिरपेक्षता, उदारता एवं लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए आगे आकर मुखर होना होगा, भले ही इसके चाहे जो परिणाम निकलें।

(लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)