कोलेजियम पर रार, न्यायपालिका के साथ ही कार्यपालिका के भी सक्रिय होने का समय
भले ही कोलेजियम का निर्माण सुप्रीम कोर्ट ने किया हो लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह एक नीर-क्षीर व्यवस्था है और उसमें कहीं कोई विसंगति नहीं। कोलेजियम व्यवस्था में न केवल विसंगतियां हैं बल्कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल भी नहीं। इसी कारण उसे लेकर सवाल उठते रहते हैं।
कानून एवं कार्मिक मंत्रालय से जुड़ी संसदीय समिति ने उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति में देरी पर चिंता जताते हुए यह जो कहा कि कोलेजियम पर जारी गतिरोध को दूर करने के लिए न्यायपालिका के साथ कार्यपालिका को सक्रिय होना चाहिए, उस पर दोनों को ही ध्यान देने की आवश्यकता है। इस समिति ने इस संदर्भ में यह सही सुझाव दिया कि कार्यपालिका और न्यायपालिका को इस मामले में लीक से हटकर सोचने की जरूरत है। यह तभी संभव है, जब दोनों पक्षों में इस विषय पर संवाद की प्रक्रिया प्रारंभ होगी। विडंबना यह है कि संवाद के बजाय वाद-विवाद हो रहा है।
एक ओर जहां सरकार कोलेजियम व्यवस्था पर सवाल उठा रही है, वहीं सुप्रीम कोर्ट उसे न केवल उपयुक्त बताने में लगा हुआ है, बल्कि यह भी चाह रहा है कि उसे लेकर किसी तरह के प्रश्न न किए जाएं। यह स्वीकार्य नहीं हो सकता और सुप्रीम कोर्ट के यह कहने के बाद भी नहीं हो सकता कि कोलेजियम अब एक कानून है और सभी को उसका सम्मान करना होगा।
भले ही कोलेजियम का निर्माण सुप्रीम कोर्ट ने किया हो, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह एक नीर-क्षीर व्यवस्था है और उसमें कहीं कोई विसंगति नहीं। वास्तव में कोलेजियम व्यवस्था में न केवल विसंगतियां हैं, बल्कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल भी नहीं। इसी कारण उसे लेकर सवाल उठते रहते हैं।
सरकार की ओर से कोलेजियम व्यवस्था को विसंगतिपूर्ण ठहराने और सुप्रीम कोर्ट की ओर से उसे सही करार देने से बात बनने वाली नहीं है। उचित यह होगा कि दोनों पक्ष इस पर विचार करें कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की ऐसी कोई व्यवस्था कैसे बने, जो न तो पूरी तौर पर कार्यपालिका से संचालित हो और न ही सुप्रीम कोर्ट से। यह व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए, जिससे उच्चतर न्यायपालिका के लिए यथासंभव योग्य एवं निष्पक्ष तरीके से कार्य करने वाले न्यायाधीशों की नियुक्ति संभव हो सके।
न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन करके ऐसी ही व्यवस्था बनाने की कोशिश संविधान संशोधन विधेयक के जरिये की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस विधेयक को असंवैधानिक करार दिया। इसे लेकर आज भी सवाल उठते हैं और इसका कारण यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक नियुक्ति आयोग की खामियों को दूर करने की कोई पहल करने के बजाय उसे सिरे से खारिज कर दिया। इससे न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार उसके पास ही बना रहा।
उचित यह होगा कि सुप्रीम कोर्ट यह समझे कि कोलेजियम व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता है। यह व्यवस्था पारदर्शिता की भी मांग करती है। क्या यह विचित्र नहीं कि जिस सुप्रीम कोर्ट को चुनाव आयुक्त की नियुक्ति और नोटबंदी के फैसले की फाइल चाहिए, वह कोलेजियम के तहत न्यायाधीशों की नियुक्ति का कोई विवरण देने को तैयार नहीं?