राजीव सचान। लोकतांत्रिक देशों में सुधार की कोई पहल या नई नीति का निर्माण अथवा नया काम शुरू करना आसान नहीं होता। भारत भी इसका अपवाद नहीं। 1853 में जब अंग्रेजों ने देश में पहली बार रेल चलाई थी तो उसका यह कहकर विरोध हुआ था कि लोहे पर लोहा चलाना अपशकुन को निमंत्रण देना है। स्वतंत्र भारत में हिंदू कोड बिल का विरोध हुआ। इसी विरोध के चलते उस पर अमल में देरी हुई।

हाल के इतिहास पर गौर करें तो पाएंगे कि नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए और तीन कृषि कानूनों का बड़े पैमाने पर विरोध किया गया। बांग्लादेश के हालात और वहां हिंदुओं पर बड़े पैमाने पर हमलों को देखते हुए तो अब यह आवश्यक हो गया है कि नागरिकता कानून को और अधिक उदार बनाया जाए, ताकि 2014 के बाद भी भारत आए तीन पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों को आसानी से शरण एवं नागरिकता दी जा सके। ऐसा करते हुए पीड़ित और अाक्रांता में भेद किया ही जाना चाहिए।

यह किसी से छिपा नहीं कि तीन तलाक खत्म करने की पहल पर किस तरह आसमान सिर पर उठा लिया गया था। इस पहल का विरोध यह कहते हुए किया जा रहा था कि यह प्रथा गलत तो है, लेकिन इसे खत्म करने का काम सुप्रीम कोर्ट या सरकार को नहीं करना चाहिए। जब भी समान नागरिक संहिता की चर्चा छिड़ती है, कई मुस्लिम नेता और तथाकथित सेक्युलर-लिबरल तत्व उसका आंख मूंदकर विरोध करना शुरू कर देते हैं, बिना यह जाने-समझे कि इस संहिता के क्या प्रविधान होंगे?

यह कौआ कान ले गया वाला रवैया है। इसी रवैये का परिचय वक्फ अधिनियम में सुधार के मामले में दिया जा रहा है। विरोध करने वाले वही जाने-पहचाने ओवैसी जैसे मुस्लिम नेता और नकली सेक्युलर, लिबरल और वोक तत्व हैं। कुछ मुस्लिम नेता सुधार के पक्ष में भी हैं, लेकिन क्या मुस्लिम समाज उनकी सुनेगा? अभी तक सभी सूत्रों के हवाले से इतना भर पता चला है कि वक्फ अधिनियम में करीब 40 संशोधन होंगे और इसके तहत वक्फ बोर्ड के असीमित अधिकार खत्म किए जाएंगे।

सरकार के अलावा शायद ही किसी को पता हो कि इसके अलावा अन्य संशोधन क्या होंगे, लेकिन विरोध करने वालों को जानकारी के इस अभाव से कोई फर्क नहीं। वे तरह-तरह के कुतर्क देने में लगे हुए हैं। सबसे बड़ा कुतर्क यह है कि सरकार की नीयत ठीक नहीं। इस कुतर्क के आगे कोई भी तर्क रखना बेकार है, क्योंकि शक का इलाज हकीम लुकमान के पास भी नहीं। शक करने वालों की तरह अंधविरोध से ग्रस्त लोगों का भी कोई इलाज नहीं।

किसी भी सरकार के फैसलों और उसकी नीतियों का विरोध या समर्थन उनके गुण-दोष के आधार पर होना चाहिए, लेकिन अपने देश की राजनीति में ऐसा नहीं होता। विरोध के लिए विरोध हमारे सभी दलों की प्रिय नीति है। कई विपक्षी दल इसी नीति का परिचय वक्फ अधिनियम में बदलाव पर देने के लिए उतावले हो रहे हैं।

ऐसे में सरकार के लिए उचित यही है कि वह वक्फ अधिनियम में जो भी संशोधन करने जा रही है, उन पर संसद में व्यापक बहस कराए, ताकि विपक्षी नेताओं को यह कहने का बहाना नहीं मिले कि सरकार ने बिना बहस आनन-फानन संशोधन विधेयक पारित करा लिया। व्यापक बहस का एक परिणाम यह भी होगा कि आम जनता और विशेष रूप से मुस्लिम समाज में भ्रांतियों के लिए कोई गुंजाइश नहीं रहेगी।

वक्फ अधिनियम में संशोधन की आवश्यकता केवल इसलिए नहीं है, क्योंकि वक्फ बोर्डों को मनमाने अधिकार मिले हुए हैं। आवश्यकता इसलिए भी है ताकि वक्फ संपत्तियों का निर्धन मुस्लिम समाज की भलाई के लिए सदुपयोग हो और इन संपत्तियों का दुरुपयोग एवं उन पर अवैध कब्जे का सिलसिला थमे। कट्टरपंथी नेता कुछ भी कहें, खुद वक्फ बोर्ड के पदाधिकारी यह मानते हैं कि उनकी छवि जमीन हड़पने वालों की बन गई है।

इस छवि के लिए वक्फ बोर्डों की कार्यप्रणाली ही जिम्मेदार है। वे किस मनमाने तरीके से काम करते हैं, इसका उदाहरण पिछले सप्ताह ही जबलपुर हाई कोर्ट के उस आदेश से मिला, जिसमें उसने शाहजहां की बहू के मकबरे समेत तीन अन्य मुगलकालीन संपत्तियों पर उसका दावा इसलिए खारिज कर दिया, क्योंकि ये संपत्तियां भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के संरक्षण में होनी चाहिए थीं।

वक्फ बोर्डों को कैसे मनमाने अधिकार हासिल हैं, इसका प्रमाण तमिलनाडु का वह गांव भी है, जिसके मंदिर की जमीन पर वक्फ बोर्ड ने अपना दावा ठोक दिया, जबकि यह मंदिर 1500 साल पुराना यानी इस्लाम के उदय के पहले का है। वक्फ बोर्ड की संपत्तियों पर आमतौर पर सियासी और मजहबी रसूख वाले नेता काबिज रहते हैं। वे उसकी संपत्तियों का दुरुपयोग ही नहीं करते, बल्कि उन पर कब्जे कराने के साथ उन्हें बेचते भी हैं।

प्रयागराज में वक्फ की 50 करोड़ से अधिक की जमीन पर माफिया अतीक अहमद का कब्जा था। 2023 में योगी सरकार ने उसे खाली कराया और अब वहां वक्फ बोर्ड की ओर से एक क्लीनिक का संचालन हो रहा है। कुछ वर्ष पहले कर्नाटक अल्पसंख्यक आयोग ने एक रिपोर्ट जारी कर कहा था कि वक्फ बोर्ड के पदाधिकारियों, सरकारी अधिकारियों और कांग्रेस नेताओं की मिलीभगत से वक्फ की करोड़ों की संपत्ति बेच दी गई।

इस रिपोर्ट पर न तो कोई जांच हुई और न ही कार्रवाई। महाराष्ट्र में वक्फ बोर्ड के एक पदाधिकारी को इस आरोप में हटाया गया कि उसने वक्फ की संपत्तियां बिल्डरों को बेच दी थीं। देश भर के करीब 30 वक्फ बोर्डों के पास सेना और रेलवे के बाद सबसे अधिक संपत्तियां हैं, लेकिन किसी को और कम से कम गरीब मुसलमानों को नहीं पता कि उनसे उन्हें क्या लाभ मिल पा रहा है।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)